28 मार्च 2015

नेताओं के बोल कुबोल


कृषि प्रधान देश में इस बार की फसल देखकर लग रहा था कि पिछले कई-कई वर्षों से घाटा सहते, परेशानी उठाते, कर्जा ढोते किसानों को राहत मिल जाएगी. न सही बहुत अधिक लाभ किन्तु वे अपने पिछले समस्त नुकसान की भरपाई कर लेंगे. भविष्य के लिए सपने संजोये किसानों की मेहनत पर असमय हुई भीषण बारिश, ओलावृष्टि ने पानी फेर दिया. एक झटके में सोना बरसाती सी प्रतीत होने वाली फसल मिट्टी में मिल गई और साथ में ख़ाक हो गए किसानों के सपने, उनके परिवार की खुशियाँ, उनके अरमान. ऐसे आपातकाल में सबको सक्रिय होना चाहिए था और शायद होते से लगे भी किन्तु सक्रियता को बाधा पहुँचाने वाले, सक्रियता को हताशा देने वाले, किसानों के जख्मों को और कुरेदने वाले भी चुप नहीं बैठे. सरकारी स्तर पर जिस मदद की दरकार थी, वो नहीं हुई, इसके उलट सरकारी नुमाइंदों की तरफ से असंवेदित बयानबाजियाँ जरूर होने लगी.
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उत्तर प्रदेश की सरकार किसानों के द्वारा आत्महत्या को स्वीकारती ही नहीं तो उधर राजस्थान के एक माननीय इससे भी आगे निकल कर ‘कोई पेड़ से लटक जाए तो क्या किया जा सकता है’ जैसा अनर्गल बयान देते दिखते हैं. हालाँकि ये कोई पहला मौका नहीं है जबकि नेताओं, मंत्रियों द्वारा इस तरह के बयान दिए जा रहे हों. पूर्व में भी किसानों की समस्याओं पर ऐसे बेतुके बयान सामने आते रहे हैं. ये माननीय लोग, सरकारी अमला कभी भी किसानों के दर्द को नहीं समझ सकता है. किसानों के हितार्थ, कृषि क्षेत्र के विकास हेतु बातें करना अलग बात है, इनके लिए वास्तविक रूप से काम करना, इनके दर्द को वास्तविकता में समझना और बात है. दरअसल वर्तमान राजनीति की दिशा इन्हीं चंद राजनेताओं ने इस तरह बिगाड़ कर रख दी है जहाँ पर संवेदित लोगों को समूची राजनीति ही विकृत लगने लगी है. यही कारण है कि लगातार इसी तरह की विकृत मानसिकता के लोग सदन में, सरकार में पहुँचते जा रहे हैं, जिन्हें न समाज से मतलब होता है, न किसान से, न विकास से और न ही राजनीति से. ऐसे लोगों का एकमात्र उद्देश्य स्वार्थपरक व्यवस्था के अन्तर्गत काम करते हुए स्वयं को, अपने सम्बन्धियों को, रिश्तेदारों को लाभान्वित करना होता है.
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देखा जाये तो अब बहुतायत लोगों के लिए राजनीति खुद को धनबल, बाहुबल से सुसज्जित करने का माध्यम बन गया है. सत्ता, ताकत, पद के बल पर ठेके ले लेना, जबरन वसूली जैसे काम करना, धन उगाही करना, स्थानांतरण करवाना-रुकवाना आदि को ही अंतिम लक्ष्य मान लिया जाता है. ऐसे में कैसे कल्पना की जा सकती है कि ये लोग किसानों के दर्द को समझेंगे. एक पल को सोचिये उस किसान की पीड़ा, जिसने कृषि कार्य हेतु इधर-उधर के कर्जा लेकर, बैंक से ऋण लेकर खाद, बीज, पानी, उपकरण आदि का इंतजाम किया होगा; लहलहाती फसल को देखकर उसने भविष्य के लिए सपने सजाये होंगे; अपने बच्चों की पढ़ाई, विवाह आदि के लिए बंदोवस्त किया होगा; फसल विक्रय पश्चात् अपने कर्ज को चुकता कर अपनी माली हालत को सुधारने का मन बनाया होगा किन्तु बारिश ने एक झटके में सबको पानी में मिला दिया. निराशा, हताशा, अवसाद के वातावरण में अधिसंख्यक किसान सदमे से मौत की गोद में चले गए तो बहुतों ने अँधियारा देखकर आत्महत्या कर ली. सरकार से मदद के नाम पर खानापूरी ही हो रही है. नष्ट हुई फसलों का सर्वे करवाया जा रहा है, मुआवजे के नाम पर मजाक सा किया जा रहा है, अधिकारियों में आपस में बन्दरबाँट होने जैसी आशंका भी सामने आई है. ऐसे में यदि इन माननीयों के द्वारा कुबोल बोले जा रहे हैं तो कौन सा नई बात हो गई है. इनके लिए प्राथमिकता में स्वहित है, परहित तो कहीं दूर की बात है.
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