निठारी
काण्ड के दोषी सुरेन्दर कोली की फाँसी की सजा को उम्रकैद में बदले जाने को लेकर
अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं देखने-सुनने को मिली. इस जघन्य हत्याकांड के बदले आम
जनभावना यही बनी हुई थी कि कोली को फांसी की सजा ही मिलेगी किन्तु इस निर्णय से
ऐसे लोगों में एक तरह की निराशा उत्पन्न हुई है. हालाँकि चंद ऐसे लोग जो इस तरह के
क्रूरतम अपराधियों को भी क्रूर सजा देने के पक्षधर हैं, वे अवश्य ही निराश नहीं
हुए होंगे. ये समझने की आवश्यकता है कि आखिर अपराधियों को किस तरह से इसका एहसास
करवाया जाये कि उन्हों ने अपराध किया है. और यदि ऐसा कानूनन करवाया जाना है तो
इसके लिए आवश्यक है कि अपराधी को जिंदा रखा जाये साथ ही कड़े से कड़ा दंड दिया जाये.
जो लोग इस पक्ष में रहते है कि अपराधियों को फांसी देने से एक सन्देश जाता है,
अपराधियों में, और वे अपराध करने से डरते हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि जिस तरह से
धनञ्जय चटर्जी को फांसी दी गई थी, उसके बाद से भी अपराधों में लेशमात्र भी कमी
नहीं आई. इसका सीधा सा अर्थ है कि फांसी उस अपराधी को नहीं वरन उसके परिवार को
प्रताड़ित करती है. ये समझना चाहिए कि अपराध किसी व्यक्ति ने किया है तो उसकी सजा
भी उसी व्यक्ति को मिलनी चाहिए न कि उसके परिवार को.
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यहाँ
इसका अर्थ ये कदापि नहीं है कि अपराधियों को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए.
लोगों में अपराध के प्रति भय पैदा करने का काम कानून के द्वारा होना ही चाहिए और
इसके लिए कठोर से कठोर सजा का प्रावधान होना चाहिए. दरअसल समाज में आज यही नहीं हो
पा रहा है. मानवाधिकारों के नाम पर विभिन्न राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय संघटनों के
कारण, विभिन्न सरकारी, गैर-सरकारी संगठनों के कारण कानून को भी अपना काम करने में
दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है. मानवाधिकार के नाम पर एक तरह का मखौल उस समय बनने
लगता है जबकि ऐसे संगठन अपराधियों के हितों की रक्षा के लिए सामने आने लगते हैं. इसे
स्वीकार करने में कतई गुरेज नहीं होना चाहिए कि किसी भी अपराध को अंजाम देने वाला
भी एक व्यक्ति है और उसको सुधरने का भरपूर मौका दिया जाना चाहिए. इसके साथ ही ये
भी ध्यान रखने वाली बात है कि वो अपराधी स्वयं ही कितना सुधरने का भाव रखता है,
उसके भीतर खुद में ही कितना इंसानियत का भाव है, उसके द्वारा किया गया अनजाने में
हुआ है अथवा जानबूझकर पूर्ण योजना के साथ उसे अंजाम दिया गया है. ये स्थितियां भी
किसी भी अपराधी के मानवाधिकार का निर्धारण करने में देखी-समझी जानी चाहिए.
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आतंकवादियों
को किसी भी रूप में फाँसी की सजा से वंचित नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि उनके
द्वारा कोई भी अपराध अनजाने में नहीं किया गया होता है. इधर हाल के वर्षों में ऐसा
देखने में भी नहीं आया है कि गिरफ्तार किये गए आतंकियों में से किसी ने स्वयं ही
सुधरने का प्रयास किया हो. ऐसे में उनको फांसी की सजा से वंचित रखना कहीं न कहीं
जनजीवन को खतरे में डालना ही है. विगत कुछ वर्षों में जिस तरह से सरकार ने
आतंकियों को आना-फानन फांसी पर लटका कर अपनी दृढ़ता, सशक्त का परिचय देने का प्रयास
किया उसके इस तरह के क़दमों का स्वागत किया गया क्योंकि इन आतंकियों ने देश की
सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ आम जनजीवन को तहस-नहस कर दिया था. निरीह मासूमों की
जान ले ली थी. इन आतंकियों के लिए फांसी की सजा अनिवार्यता की तरह होनी चाहिए
क्योंकि कहीं न कहीं ये बड़े-बड़े आतंकी संगठनों से जुड़े होते हैं और इनके आका इनको
कैद से मुक्त करवाने के लिए किसी भी स्तर तक जा सकते हैं. इसका भयावह उदाहरण हम
सभी ने कांधार विमान अपहरण काण्ड के द्वारा सहा-झेला ही है.
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इसके
बाद भी कई सारे सवाल अभी भी हैं कि क्या सुरेंदर कोली जैसों को फाँसी की सजा दे
देने से इस तरह के अपराधों पर कोई अंकुश लगेगा? क्या इस तरह के अपराधियों के हौसले
टूटेंगे? क्या लोग इस तरह के अपराध करने की तरफ उन्मुख नहीं होंगे? यह अपने आपमें
बहुत ही विचारणीय स्थिति है कि एक अपराधी को फांसी पर लटका कर देश को, यहां के
नागरिकों को क्या संदेश मिलता है? देखा जाये तो न ही अपराधी
में और न ही अपराध करने वालों में फाँसी की सजा से किसी तरह की दहशत पैदा होती है
वरन इसे लेकर भी राजनैतिक रोटियाँ सेंकी जानी शुरू हो जाती हैं. यहाँ कानून को,
सरकार को, मानवाधिकार संगठनों को इस बारे में विचार करने की आवश्यकता है कि कठोर
सजा के द्वारा सम्बंधित अपराधी में अपराध-बोध को जगाया जाए तथा अपराधोन्मुख होने
वालों में भी भय का संचार करवाया जाए. फाँसी की सजा आतंकियों को, ऐसे अपराधियों को
अवश्य हो जिनका व्यापक नेटवर्क काम कर रहा हो किन्तु जिस व्यक्ति की फाँसी से कोई
सन्देश न जाए, अपराधियों के हौसले पस्त न हों तो उसे कठोर सजा के द्वारा लगातार
उसके अपराध का एहसास करवाया जाना चाहिए.
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