राजनीति या अराजकनीति
डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
भ्रष्टाचार मिटाने की मुहिम पर निकले अन्ना आन्दोलन के
पार्श्व से अन्ना टीम के मुख्य सदस्य अरविन्द केजरीवाल ने भारतीय राजनीति को
कलंकित करते कतिपय नेताओं-मंत्रियों का विकल्प खड़ा करने के उद्देश्य से राजनीति में
उतरने का फैसला लिया था. आम आदमी की राजनीति करने के अपने फैसले को सही ठहराने के
लिए ‘आम आदमी पार्टी’ नाम से अपना राजनैतिक आगाज़ दिल्ली से कर दिया. उनके इस फैसले
को जिस तरह से समर्थन मिला, उसी तरह से इसके विरोध में भी स्वर उठे. खुद अन्ना की
तरफ से भी राजनैतिक कदम का समर्थन नहीं किया गया. इस कारण से केजरीवाल द्वारा अपनी
राजनैतिक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए किये जा रहे विभिन्न क़दमों में अन्ना नहीं
दिखे, जनलोकपाल गायब रहा, टोपी बदली हुई लगी, मुद्दे भी बदले-बदले से मिले यहाँ तक
कि केजरीवाल के तेवर भी बदले-बदले से लगे. अन्ना आन्दोलन की सहानुभूतिपरक लहर ने
केजरीवाल और उसके राजनैतिक महत्त्वाकांक्षी सदस्यों को दिल्ली में निर्वाचित भी करवा
दिया. अन्ना लहर, कांग्रेस-केंद्र सरकार की नीतियों के विरोध के चलते आम आदमी
पार्टी को अपने पहले प्रयास में अभूतपूर्व सफलता प्राप्त हुई किन्तु वे सत्ता से
चंद कदम दूर रह गए.
इसके बाद जो हुआ वो भी अप्रत्याशित रहा, जिस कांग्रेस को
समूची केजरीवाल टीम ने पानी पी-पीकर कोसने का काम किया था, कई-कई पेज के सबूत
दिखा-दिखाकर वोट मांगने का काम किया था अंततः सत्ता के लिए उसी कांग्रेस से हाथ
मिला बैठे. जैसा कि राजनीति में कहा जाता है कि कोई भी स्थायी रूप से न तो मित्र
होता है और न ही शत्रु होता है, कुछ ऐसा ही यहाँ दिखाई दिया. बहरहाल केजरीवाल
समर्थकों ने इसे भी दिल्ली के भविष्य को ध्यान में रखते हुए स्वीकार कर लिया. तत्कालीन
परिस्थितियों में इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आम आदमी पार्टी ने आम आदमी
से जुड़े हुए मुद्दों को सामने रखा, उसकी समस्याओं को उठाया. इन सबके बावजूद आम आदमी
पार्टी अथवा केजरीवाल कुछ सकारात्मक करने से चूक गए. विरोधियों से सहयोग से मिली
सत्ता को अपने हितार्थ और दिल्ली के भविष्य के लिए उपयोग करने से पीछे हट गए. महज
उनचास दिनों की अपनी सत्ता के दौरान केजरीवाल ऐसा कुछ भी दिखा पाने में अक्षम
सिद्ध हुए जिससे कहा जाता कि वे कुछ नया और अलग करने के लिए विरोधियों के सहयोग से
सरकार चला रहे हैं. एक पुलिसवाले के लिए स्वयं मुख्यमंत्री का धरने पर बैठ जाना,
उन्हीं के एक सिपहसालार का धरना समाप्त करवाने के लिए मिलने-मिलाने की जोड़-तोड़
करना, राज्य का मुख्यमंत्री बनने के लिए खाप-पंचायतों का समर्थन कर बैठना, मुस्लिम
मतों के लिए तुष्टिकरण की नीति को अपना लेना और इसी की आड़ में आतंकी-समर्थकों का
समर्थन करने लगना आदि-आदि कुछ ऐसा रहा जो सहजता से ग्राह्य नहीं होता है.
केजरीवाल का महत्त्वाकांक्षी राजनीतिक कदम इतने पर ही शांत
नहीं हुआ. दिल्ली के अप्रत्याशित चुनाव परिणामों ने आम आदमी पार्टी के
कार्यकर्ताओं और खुद केजरीवाल टीम को चकाचौंध कर दिया था. इसी चकाचौंध में
केजरीवाल लोकसभा चुनाव में समूचे देश से आम आदमी पार्टी का प्रतिनिधत्व करने की
गरज से दिल्ली की सत्ता छोड़कर चुनाव मैदान में उतर आये. अति-आत्मविश्वास मोदी लहर
के सामने ढेर हुआ और जिस हनक के साथ शीला दीक्षित को हराने का दम केजरीवाल ने भरा
था वो हनक बनारस में मोदी के सामने टिक न सकी. आम आदमी पार्टी के भविष्य पर लोकसभा
हार का क्या असर होता ये अलग विषय हो सकता है किन्तु दिल्ली मतदाताओं के साथ ये
कहीं न कहीं खिलवाड़ ही था. देश की संसद और संविधान के साथ एक मजाक ही था. वर्तमान
में जिस तरह से राजनीति का अपराधीकरण और अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है वो
अपने आपमें चिंता का विषय है किन्तु जिस तरह से आम आदमी पार्टी कुछ नया करने की
चाहत में कर रही है वो भी कम चिंता का विषय नहीं है. जिस तरह का विश्वास आम आदमी
ने केजरीवाल टीम पर दर्शाया था उसके अनुसार इस टीम को युवाओं में राजनीति के
प्रति, संसद के प्रति, संविधान के प्रति सकारात्मक सोच पैदा करने की महती
जिम्मेवारी निभानी चाहिए थी. बजाय ऐसा कुछ करने के इस पार्टी और इस टीम द्वारा भी
वही सब किया गया जो शेष राजनैतिक दल कर रहे हैं, करते आ रहे हैं. दागियों को यहाँ
भी टिकट दिए गए, दारू, रुपये का लालच यहाँ भी दिया गया, अपराधी यहाँ भी देखने को
मिले, मुस्लिम तुष्टिकरण यहाँ भी सामने आया, धार्मिक भेदभाव दर्शाने के लिए टोपी
भी सामने उछलकर आई, शहीदों के नाम का मजाक बनाया गया, विदेशी फंडिंग का खुलकर
सहारा लिया गया, देश के उन मुद्दों का समर्थन किया गया जिन्हें संवेदनशील माना
जाता है, सब्सिडी, मुफ्तखोरी का हवाला यहाँ भी दिया गया, उद्योगपतियों को गरियाने
के बाद भी उद्योगपतियों का सहारा लिया गया. शायद ही ऐसा कोई काम शेष रहा हो जो आम
आदमी पार्टी को शेष दलों से अलग करता हो या फिर ऐसा दर्शाता हो कि अन्ना आन्दोलन
के पार्श्व से जिस उद्देश्य के लिए इस पार्टी का जन्म हुआ था वो यहाँ दिखाई दिए.
राजनैतिक विकल्प बनने के नाम पर जन्मी पार्टी द्वारा अब
राजनैतिक विकल्प के अलावा सब कुछ हो रहा है. उनकी पार्टी के बहुत से ऐसे लोग इस
राजनीति से अपने को दूर करने में लग गए हैं, यहाँ तक कि आम आदमी पार्टी के गठन में
सहयोगी रहे अनेक लोग इसका साथ छोड़ चुके हैं. दरअसल वे खुद को ठगा सा महसूस कर रहे
हैं. लगभग असफलता के साथ समाप्त हुए अन्ना-आन्दोलन के पीछे भी कोई सांगठनिक ढांचा
नहीं था और अब केजरीवाल-राजनीति भी बिना किसी सांगठनिक ढांचे के हो रही है, ऐसे
में सफलता संदिग्ध ही लगती है. अब जबकि दिल्ली दोबारा चुनाव के लिए तैयार है.
मीडिया, सोशल मीडिया और दूसरे तमाम सूत्र दिल्ली चुनाव को भले ही मोदी बनाम
केजरीवाल सिद्ध करने में लगे हों किन्तु जिस तरह से वर्तमान निर्वाचन में आम आदमी
पार्टी के लोगों की भूमिका दिखाई दी है, स्वयं केजरीवाल और उनके सहयोगियों का
व्यवहार दिखाई दिया है वो राजनीति की अवसरवादिता और विध्वंसक राह का संकेत देता
है. सब्सिडी और मुफ्तखोरी का वादा ये भी करते दिखाई दे रहे हैं, शराब इनके
कार्यकर्ताओं के पास से भी पकड़ी जा रही है, पैसे लेने की बात खुद केजरीवाल खुलेआम
मंच से करते दिख रहे हैं, टिकट का बिकना इन लोगों के बीच भी हो रहा है, बाकी दलों
के नेताओं की तरह बदजुबानी आम आदमी पार्टी के नेताओं में भी दिख रही है, ऐसे में
कहाँ और किस तरह से अपने को ईमानदारी के साथ प्रस्तुत कर रही है ये पार्टी? खुलेआम
और छिप कर लूटपाट करते, झूठ बोलते, सिर्फ और सिर्फ वादा करते शेष दलों की तरह ही आम
आदमी पार्टी द्वारा बर्ताव किया जा रहा है, ऐसे में किसी सार्थकता की उम्मीद तो
नहीं ही की जा सकती है. बिजली के बिलों की कटौती करवा देना, कटी हुई बिजली के
तारों को जोड़ देना, मेट्रो से शपथ ग्रहण करने पहुँचना, बात-बात पर धरना देने लगना,
अपनी किसी भी मजबूरी के लिए केंद्र सरकार को दोषी ठहराने लगना, चुनाव की
स्थिति-परिस्थिति के अनुसार विरोधी बदल देना, सत्ता-प्राप्ति के पश्चात् मुख्य
विरोधी को भूल जाना, मतदाताओं के विश्वास को ठेस पहुँचाकर अति-महत्त्वाकांक्षा में
प्रधानमंत्री की दौड़ में शामिल हो जाना, संविधान को गलत साबित करना, संसद को
अपराधियों का अड्डा बताना, समूची राजनीति को भ्रष्ट बता देना, देशभर के तंत्र को
मिलीभगत का आरोप लगाना और स्वयं को एकमात्र ईमानदार सिद्ध करना ही राजनीति नहीं
होती. इसी सबको व्यवस्था परिवर्तन करना नहीं कहते हैं. इससे भविष्य में राजनैतिक
सुधार हो या न हो किन्तु राजनीति के अराजक होने के संकेत अवश्य ही मिलते हैं.
. ये आलेख आज दिनांक-03-02-2015 के जनसंदेश टाइम्स के सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित किया गया है.
http://www.jansandeshtimes.in/index.php?spgmGal=Uttar_Pradesh/Kanpur/Kanpur/03-02-2015&spgmPic=7
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