दिल्ली
विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी को अप्रत्याशित रूप से प्रचंड
बहुमत प्रदान कर भाजपा समेत सभी दलों को हाशिये पर खड़ा कर दिया. ये परिणाम जितना
आश्चर्यजनक रहा उससे ज्यादा आश्चर्यजनक अब लोगों का राजनैतिक विश्लेषक बन उभरकर
सामने आना भी है. जितने मुँह उतनी बात वाली तथ्यात्मकता यहाँ देखने को मिल रही है.
किसी की दृष्टि में किरण बेदी का आना भाजपा के लिए घातक रहा तो कुछ लोगों लिए आम
आदमी पार्टी द्वारा मुफ्त का वादा कर देना उसके लिए फायदे का सौदा रहा. कोई भाजपा
की नीतियों का प्रभावी न होना बता रहा है तो किसी के लिए ये चुनाव परिणाम मोदी के
प्रभाव का कम होना रहा है. कोई बता रहा है कि आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं ने
जमीनी मेहनत की है और कोई कहने में लगा है कि भाजपा के कार्यकर्त्ता जमीन से गायब
दिखे. अनेकानेक बातें, अनेकानेक दावे और सबके अपने-अपने मजबूत तर्क. शायद यही इस
देश के लोकतंत्र की विडंबना है कि हम सभी बहुत-बहुत बार वास्तविकता से मुँह चुराकर
ऐसे तथ्यों को प्रमुखता से स्वीकारने लगते हैं, जिनका अपना कोई अस्तित्व नहीं होता
है. ये भावनात्मक संवेदना न केवल चुनावों में वरन बहुतायत स्थितियों में देखने को
मिलती है. एक पल में जो हमारे लिए हीरो बना होता है वह अगले ही पल कब और कैसे जीरो
हो जाता है, समझ नहीं आता है.
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दिल्ली
के चुनाव परिणाम आम आदमी पार्टी के पक्ष में आये हैं तो इसी एक चुनाव परिणाम ने
मोदी को ख़तम कर दिया, उनकी लहर को ख़तम कर दिया, भाजपा की लुटिया डुबो दी, आम आदमी
पार्टी को स्थापित कर दिया आदि-आदि जैसे तर्क-वितर्क भी दिखा दिए. क्या यही सब
तर्क उस समय भी सामने आते जबकि आम आदमी पार्टी को इतना प्रचंड बहुमत न मिलता या
फिर आम आदमी पार्टी के स्थान पर भाजपा को बहुमत मिल जाता? संभवतः तब हम सबके आकलन
की, तर्क-वितर्क की स्थिति दूसरी होती, तब हमारे लिए किरण बेदी बाहरी न होती,
अक्खड़ न होती, तब शायद हमारे लिए केजरीवाल प्रभावी न होते, तब शायद उनके कार्यकर्त्ता
नाकारा सिद्ध कर दिए जाते, तब उनकी मुफ्त बिजली-पानी देने की बात का मजाक उड़ाया
जाता, तब संभवतः मोदी की लहर और तेज कही जाती, शायद मोदी-शाह की जोड़ी को अजेय
सिद्ध कर दिया जाता आदि-आदि. ऐसे हरेक मौके पर हम सभी भावनाओं के हाथों मजबूर होकर
अपने-अपने नायकों का महिमामंडन करने में लग जाते हैं. यही मानवीय स्वभाव हमारे
नायक और खलनायकों की स्थापना करवाता है. यही मानव प्रकृति सामाजिक क्षेत्र में अच्छे-बुरे
के भेद के बावजूद भी अच्छाई के साथ-साथ बुराई को स्थापित करती है. सत्य के साथ
असत्य का, सामान्य के साथ असामान्य का, ईमानदारी के साथ बेईमानी का, स्वच्छ के साथ
भ्रष्ट का समावेश, स्थापन सहजता से हमें देखने को मिलता है.
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बहरहाल
चुनाव परिणामों ने क्या-क्या किसे दिया, क्या-क्या किससे छीना ये उनके आकलन का
विषय है जो इससे लाभ-हानि की स्थिति में आये हैं. इसके साथ-साथ इन चुनावों के अब आ
रहे तर्क-वितर्क से मानवीय मनोविज्ञान को, सामाजिक विज्ञान को समझने-पढ़ने, उस पर
शोध करने की स्थिति भी सामने आई है. क्षणिक लाभ-हानि के लिए दीर्घकालिक स्थितियों
को विस्मृत कर देना, तात्कालिक स्थिति के अनुसार अपनी मनोदशा को बना लेना, एक पल
में ही किसी के प्रति भी अपनी भावना का प्रकटीकरण कर देना, किसी एक पल में किसी को
सिंहासन पर बिठा देना और अगले ही पल उसे धूल में मिला देना आदि जैसे मानवीय स्वभाव
को भी वर्तमान चुनाव में सहजता से देखा गया है. ये चुनाव और इनके परिणाम न केवल
राजनैतिक पंडितों के लिए वरन सामाजिक विज्ञानियों के लिए, मनोवैज्ञानिकों के लिए
भी अध्ययन की पर्याप्त सामग्री लेकर आया है. अब कौन इसका कैसे और कितना उपयोग कर
पता है ये भविष्य के गर्भ में है, तब तक जनभावना के चलते अनेकानेक आकलन, अनुमान,
निष्कर्ष आपके आसपास घूमते मँडराते दिखेंगे.
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