दिसम्बर का आरम्भ
जहाँ सामाजिक क्षेत्र में एड्स दिवस, विकलांग दिवस से होता है वहीं राजनैतिक क्षेत्र
में इस महीने का आरम्भ अयोध्या मामले की चर्चा से होने लगता है. समूची राजनीति को
अयोध्या, राम, भाजपा आदि के इर्द-गिर्द केन्द्रित कर दिया जाता है. इस बार इस
चर्चा को बाबरी मस्जिद के पैरोकार, मुख्य मुद्दई हाशिम अंसारी के बयान “राम लला की
दुर्दशा नहीं देखी जाती, उन्हें आज़ाद देखना चाहता हूँ” और हवा दे दी. विगत दो
दशकों से बाबरी मस्जिद के मुख्य पैरोकार रहे हाशिम के इस बयान को राजनीतिज्ञों
द्वारा की जा रही उपेक्षा का परिणाम समझा जा रहा है. यह भली-भांति देखने में आ रहा
है कि विगत दो दशकों में भाजपा विरोधी दलों द्वारा दिसम्बर आते ही, किसी भी राज्य
के चुनाव आते ही राम मंदिर मामले को, राम नाम को, अयोध्या प्रकरण को उठा दिया जाता
है और फिर पूरी राजनीति को राममय बनाये जाने का आरोप भी लगाया जाने लगता है.
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इस आरोप को न केवल
भाजपा पर बल्कि समूचे हिंदुत्व पर, हिन्दू समाज पर थोपा जाने लगता है. तथाकथित रूप
से धर्मनिरपेक्षता का झंडा उठाने वाले राजनीतिज्ञ इन्हीं आरोपों की आड़ लेकर भगवा
आतंकवाद जैसी शब्दावली को चलन में बनाये रखना चाहते हैं. राजनीति में जबरन राम को
दृष्टिगत बनाये रखने की जितनी मंशा भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठनों की हो सकती
है, उससे कम गैर-भाजपाई दलों और उनके आनुषांगिक संगठनों की भी नहीं होती है. इसके
पीछे उनका मूल मंतव्य देश भर के गैर-हिन्दुओं में, मुसलमानों में हिन्दुओं का,
भाजपा का खौफ पैदा करके, अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति में मुस्लिम वोट-बैंक को
स्थापित करना होता है. देखा जाये तो गैर-भाजपाई दल इसमें सफल सिद्ध होते भी दिखते
हैं और तमाम गैर-भाजपाई राजनीतिज्ञ खुलेआम हिन्दू-विरोधी, राम-विरोधी,
हिंदुत्व-विरोधी बयान देते दिखाई देते हैं. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जहाँ एक
देश की बात की जाती है वहीं मुस्लिमपरस्त नेता और राजनैतिक दल एक सुर में हिन्दू-विरोधी
बयान देते दिखते हैं.
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देश की वर्तमान
राजनीति में राम को स्थापित करने में भाजपा से ज्यादा बड़ी और महत्त्वपूर्ण भूमिका कांग्रेस सहित अन्य दलों की भी रही है. राजीव
गाँधी द्वारा राममंदिर का ताला खुलवाया जाना, मुलायम सिंह द्वारा निहत्थे कार-सेवकों
पर गोलियाँ चलवाना, सभी गैर-भाजपाई दलों का भाजपा से ज्यादा राम-विरोधी,
हिन्दू-विरोधी हो जाना, इस्लामिक आतंकवाद के समानान्तर भगवा आतंकवाद की कपोल-कल्पना
करना, मुस्लिम तुष्टिकरण की आड़ में आतंकियों की मदद करना आदि ऐसी घटनाएँ रही हैं
जिनके कारण जाने-अनजाने राजनीति में राम का, हिन्दू धर्म का प्रवेश हो गया. ऐसा
होने के पीछे के कारणों को बिना जाने राजनीति के राममय, हिन्दूमय होने का आरोप लगाने
से पहले राजनीति के मुस्लिममय होने के आरंभिक बिंदु को भी देखना होगा. यदि विगत
साथ वर्षों से अधिक के समय में चली आ रही मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति राजनीति के
अल्लाहमय होने की, मुसलमानमय होने की पहचान नहीं है तो दो दशकों के आसपास का
अयोध्या मामला, राममंदिर मुद्दा कहाँ से राजनीति को राममय, हिन्दूमय साबित करता
है?
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