08 दिसंबर 2014

साहित्य-समृद्धि के लिए संवेदना आवश्यक



साहित्यकारों के बीच, असाहित्यकारों के बीच अब साहित्य चर्चा का विषय बना हुआ है. कुछ असाहित्यकारों को इस बात का दुःख होने लगा है कि यदि साहित्यकार भूखा रहेगा तो खायेगा क्या? ये चिंता राजनीति से प्रेरित भी दिखाई देती है और राजनीति को प्रेरित करती भी लगती है. ये साहित्य की बहुत बड़ी बिडम्बना है कि ऐसे लोग अब साहित्य की चिंता करते देखे जा रहे हैं जिनका कभी भी साहित्य से कोई सम्बन्ध नहीं रहा. यदि साहित्य की, विशेष रूप से हिन्दी साहित्य की बात की जाये तो उँगलियों पर गिने जा सकने वाले नाम ही उन साहित्यकारों के मिलेंगे जो धन की मसनद लगाकर साहित्यसृजन करते रहे अन्यथा की स्थिति में साहित्यकारों ने घनघोर अभावों को सहा है और कालजयी कृतियों की रचना की है. ऐसे एक-दो नहीं अनेकानेक नाम हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी से, अपने मिजाज़ से, अपने विचारों से समझौता न करके फक्कड़पन की स्थिति में भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया है.
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वर्तमान दौर जबसे बाज़ार के हवाले हुआ है तबसे समाज का प्रत्येक वर्ग, प्रत्येक क्षेत्र उत्पाद सा लगने लगा है. साहित्य हो या साहित्यकार, कलम हो या कि रचना, लेखक हो या कि पाठक सब कहीं न कहीं बाज़ारवाद के प्रभाव में ही साहित्य-क्षेत्र में आगे बढ़ते दिख रहे हैं. यहाँ आकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों को समझना होगा कि महज एक कृति का प्रकाशित हो जाना साहित्य नहीं है, किसी नेता-मंत्री के हाथों सम्मानित हो जाना साहित्य-सेवा नहीं है, बड़ी-बड़ी रॉयल्टी पा लेना साहित्य-सृजन नहीं है. उन्हें स्वयं अपने गिरेबान में झाँकना होगा और देखना होगा कि साहित्य की समृद्धि के लिए उन्होंने किस संख्या में नई पौध को रोपने का काम किया है, जो नवांकुर हैं उनकी सुरक्षा की कितनी जिम्मेवारी उठाई है. आधुनिकता से परिपूर्ण ये दौर, तकनीकी से भरा ये दौर जिस तरह जीवन-मूल्यों के लिए, संवेदनाओं के लिए, इंसानों के लिए संक्रमणकाल है ठीक उसी तरह से साहित्य-जगत के लिए भी संक्रमण का दौर है. साहित्य आम आदमियों के बीच से उठकर प्रकाशकों की गोदी में बैठ गया है, जहाँ प्रकाशन अब या तो पुरस्कारों के लिए होता है या फिर पुस्तकालयों के लिए. ऐसे में साहित्य की समृद्धि की संभावनाओं पर चर्चा करना भी बेमानी हो जाता है. हिन्दी साहित्य में कविता और दुष्यंत के बाद चलन में आई हिन्दी ग़ज़ल जिस तरह से आम आदमी के बीच सहजता से स्थापित थी वो भी अब मंचीय चुटकुलों में परिवर्तित होती दिख रही है. वास्तविकता प्रदर्शित करने के नाम पर कहानियों, उपन्यासों में फूहड़ता, यौन प्रदर्शन का समावेश होना साहित्य को विकृत कर रहा है.
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दरअसल साहित्य सामाजिक संवेदना का विषय है, इसमें साहित्यकार जिस-जिस मानसिकता का, जिस-जिस अवस्था का अनुभव करता है वो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में अपनी रचना में प्रदर्शित करता है. ये कतई आवश्यक नहीं कि जब तक साहित्यकार अभावग्रस्त नहीं होगा, जब तक साहित्यकार भूखा नहीं होगा, जब तक वो कष्ट में नहीं होगा तब तक कालजयी रचनाएँ संभव नहीं. इसके उलट साहित्यकार का संवेदित होना, समाज की नब्ज़ को पहचानने वाला, समृद्धि के लिए नई पौध का निर्माण करने वाला होना गुणों से परिपूर्ण होना आवश्यक है. महज इसलिए लेखन करना कि किसी न किसी रूप में पुस्तकों के प्रकाशन होते रहे, महज इसलिए लिखते रहना कि पुरस्कार झोली में गिरते रहे, इसलिए लेखन करना कि समाज में साहित्यकार का तमगा मिला रहे साहित्य को समृद्ध नहीं कर रहे वरन उसको रसातल में ले जाने का काम कर रहे हैं. और इसका आकलन महज इस बात से लगाया जा सकता है कि विगत दो-तीन दशकों में एक-दो पुस्तकों को छोड़कर कोई दीर्घजीवी कृति पाठकों के हाथों में नहीं आई है. साहित्यकारों को सामाजिक संवेदना, जीवन-मूल्यों के साथ साहित्य-सृजन करना होगा, उसी से साहित्य समृद्ध होगा, उसी से साहित्यकार संपन्न होगा. अन्यथा की स्थिति में सोशल मीडिया की निर्द्वन्द्व स्वतंत्रता ने तो प्रत्येक व्यक्ति को साहित्यकार और किसी भी तरह के लेखन को साहित्य बना ही दिया है.

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