विभिन्न प्रकार के
दिवसों के मनाये जाने की परम्परा का निर्वहन बखूबी होने लगा है. आज ३ दिसम्बर को
विश्व विकलांग दिवस का आयोजन होना है, जबकि अभी दो दिन पूर्व ही एड्स दिवस की
खुमारी उतर भी नहीं सकी है. प्रशासन अपनी औपचारिकताओं भरी कार्य-प्रणाली के चलते
किसी न किसी गैर-सरकारी, समाजसेवी संस्था का सहारा लेता है और ऐसी संस्थाएं भी
सरकारी फंड की चंद बूंदों के सहारे अपने कार्यक्रमों का आंकड़ा फिट कर लिया करती
हैं. दोनों का काम बन जाता है, दोनों के उद्देश्य पूरे हो जाते हैं, दिवस आसानी से
पूरी भव्यता के साथ निपट जाते हैं और हालात ज्यों के त्यों बने रह जाते हैं. विगत
कई वर्षों से एड्स दिवस मनाये जाने के बाद न तो इसमें अपेक्षित सुधार देखने को
मिला और न ही बाकी दूसरे दिवसों के आयोजनों से सुधार होता दिखा है. संभव है कि ऐसा
ही कुछ विश्व विकलांग दिवस पर भी होगा.
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समाज में किसी न
किसी कारण से विकलांगता का दंश झेल रहे नागरिक भी निवास कर रहे हैं. इनमें कुछ की
विकलांगता जन्मजात है तो कुछ की कतिपय दुर्घटनाओं के कारण. सरकारी एवं गैर-सरकारी
संस्थाओं द्वारा विकलांगों के लिए लगातार योजनाओं का सञ्चालन किया जा रहा है
किन्तु उनको सुचारू रूप से क्रियान्वित नहीं किया जा रहा है. देखने में लगातार आ
रहा है कि नियम-कानून-योजनाओं के बनने के बाद उसके लागू होने की पूरी प्रक्रिया
में बाबू, क्लर्क, दलाल नामक प्रजाति बुरी तरह से हावी हो जाती है. विकलांगों के
प्रति ये दया का भाव तो दिखाते हैं किन्तु उसमें एक तरह का तिरस्कार का, उपेक्षा
का भाव होता है. विकलांगों से सम्बंधित योजनाओं के कार्यों की पूर्ति में एकबारगी
भले ही उनसे सुविधा शुल्क के नाम पर धन की उगाही आमतौर पर की जाने वाली उगाही की
तरह न की जा रही हो किन्तु संवेदना का भाव पूरी से तिरोहित होता है. इसके पीछे के
कारण को देखा जाये तो स्पष्ट तौर पर समझ में आता है कि समाज में विकलांगों के
प्रति दया का भाव तो है पर उनके प्रति जागरूकता का, संवेदना का भाव लगभग शून्य की
स्थिति में है.
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बसों, ट्रेनों की
यात्रा में किराये से छूट दे देना मात्र ही उनकी सहायता नहीं है वरन यात्रा के
दौरान होने वाली समस्याओं को दूर करना भी प्राथमिकता में होना चाहिए. बहुतायत में
देखने में आया है कि ट्रेन आरक्षण में शारीरिक विकलांग व्यक्तियों को सबसे ऊपर की
बर्थ पर आरक्षण दे दिया जाता है बिना ये जाने-समझे कि वो उस बर्थ पर चढ़ेगा कैसे?
बसों के पायदानों की ऊँचाई, उनका संकरा होना आदि भी शारीरिक विकलांगों के लिए कष्ट
का कारण बनता है. विभिन्न शैक्षिक सस्थानों, सरकारी संस्थानों, कार्यालयों में
रैम्प का न बना होना भी समाज की विकलांगों के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है. यहाँ
एक बात को याद रखना होगा कि यदि मानसिक विकलांगता है तो अलग बात अन्यथा की स्थिति
में किसी भी विकलांग व्यक्ति को कम करके आँकना सामाजिक विकलांगता को ही दर्शाता
है. विकलांग व्यक्ति को न तो दया चाहिए, न वो किसी दया का पात्र है. हाँ, किसी
शारीरिक अक्षमता के चलते वह समाज की मुख्यधारा के साथ अपने आपको नहीं चला पा रहा
है तो उसको हाथ बढ़ाकर साथ ले चलने की आवश्यकता है. समाज का एक-एक व्यक्ति अपनी
मानसिकता में सुधार कर ले तो विकलांगता जैसी समस्या समाज से स्वतः ही दूर हो
जाएगी.
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३ दिसम्बर को विश्व विकलांग दिवस के साथ ही भोपाल गैस त्रासदी का दिन भी है ..गरीबों के योजनाएं उन्हें सहयोग की एक समय बाद सिर्फ कागजों में सिमट जाता है ...
जवाब देंहटाएंगहन विचारणीय प्रस्तुति हेतु आभार