नए वर्ष का स्वागत करने की आतुरता गुजरते वर्ष के अंतिम माह
में स्पष्ट रूप से दिखने लगती है और ये आतुरता माह का मध्य निकलते-निकलते और भी
तीव्रता पकड़ने लगती है. ऐसा लगता है जैसे नए वर्ष में कुछ और भी नया कर गुजरने की
आकांक्षा काम कर रही है; ऐसा लगता है जैसे आने वाले वर्ष के दामन में से खुशियों
के नवीन मानक स्थापित कर लिए जायेंगे; ऐसा प्रतीत करवाया जाता है मानो आने वाले
वर्ष में सभी मतभेद भुला कर समन्वय का नया संसार स्थापित कर लिए जायेगा; ऐसा
दर्शाया जाने लगता है जैसे आने वाले वर्ष में समाज में डर-भय-हिंसा-आतंक आदि का
वातावरण पूरी तरह समाप्त कर दिया जायेगा. नए वर्ष के स्वागत में फूटते पटाखे,
जगमगाती रोशनियाँ, थिरकती जवानियाँ, मदमस्त पार्टियाँ आदि अंततः नववर्ष के पहले
दिन ही शुभकामनाओं के आदान-प्रदान भरे घनघोर औपचारिक वातावरण में कुछ कर गुजरने के
पहले ही दम तोड़ देते हैं. नया सा कुछ दिखता ही नहीं है, जैसा, जो कुछ, गुजर चुके
वर्ष में देखने को मिल रहा था वैसा ही नए वर्ष के पहले दिन से ही दिखाई देने लगता
है.
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हर बार नववर्ष का आयोजन समझ से परे रहता है. लाख समझने की
कोशिश के बाद भी नाकामी ही हाथ लगती है और ऐसे आयोजनों का औचित्य समझ नहीं आता है.
ये तो संभव ही नहीं कि वर्ष के सम्पूर्ण दिन सुख-सम्पन्नता-खुशियों के वाहक बनें
किन्तु जिस तरह से विगत कई वर्षों से जाने वाला वर्ष जाते-जाते किसी न किसी रूप
में दुःख, टीस, दर्द दे जाता है उसके बाद तो नए वर्ष के स्वागत में रात-रात भर
झूमने वाले समारोहों-आयोजनों का कोई अर्थ नहीं रह जाता है. बहुत-बहुत कोशिशों बाद
भी नया वर्ष न तो दर्द को समाप्त कर पाता है, न ही दर्द को कम कर पाता है. कभी आतंकी
गतिविधियाँ, कभी महिलाओं के साथ ज्यादती, कभी बच्चियों के साथ ह्रदयविदारक घटनाएँ
तो कभी प्राकृतिक आपदाएँ आदि दिल को दहला देती हैं. इन घटनाओं के बाद ऐसे आयोजनों
का शोर-हुल्लड़-उमंग-उत्साह फौरी तौर पर निपट औपचारिक दिखाई देता है. दुखों का,
दर्द की एक छोटी सी लहर सुखों के, खुशियों के पहाड़ को भी नेस्तनाबूत कर देती है.
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हम सब यदि वाकई में नववर्ष को अपने संकल्पों के आधार पर मनाना
चाहते हैं; यदि वाकई अपने समय को हम यादगार बनाना चाहते हैं; यदि
सच में हम सब इंसानियत के लिए कुछ करना चाहते हैं तो हमें नववर्ष के आयोजन मात्र
नहीं करने चाहिए। समाज को दिशा देने वाले, इंसानियत को सशक्त
करने वाले, पर्यावरण को सुधारने वाले, व्यवस्था
को सुदृढ़ करने वाले कार्यों को अपनाना होगा. संकल्प लेना
होगा कि जिस पर्यावरण के सहारे हम जीवित हैं, उसको मिटाने का
काम नहीं करेंगे. नदियों, तालाबों,
वनों आदि को मिटाकर हम मानव सभ्यता को मिटाने का काम नहीं करेंगे. यदि हम अपने आपको सभ्य कहने का दम भरते हैं तो महिलाओं के प्रति
हिंसात्मकता न दिखाते हुए इसे सत्य भी करेंगे. किंचित
स्वार्थ में पड़कर बेटियों के प्रति दुर्व्यवहार नहीं करेंगे. संस्कार, संस्कृति हमारी पहचान का मूल है, इस कारण आने वाली पीढ़ी को सभ्य-संस्कारी बनाने को संकल्पित रहेंगे.
परिवार जैसी महत्वपूर्ण इकाई में आ रहे विध्वंस को रोकने की कोशिश
से, दाम्पत्य जीवन में आ रहे बिखराव को रोकने से, आपसी विश्वास, सहयोग की भावना पैदा करने से, रिश्तों की गरिमा को बनाये रखकर भी हम नववर्ष के आयोजन को सम्पन्न कर सकते
हैं. यह आवश्यक नहीं कि समूचे वर्ष में किसी एक दिन तड़क-भड़क
करने, नाच-गा लेने, शराब के जाम छलका
लेने, तेज गति से बाइक दौड़ा लेने, सड़कों
पर हो-हल्ला, छींटाकशी कर लेने भर से नववर्ष की खुशियाँ नहीं
मनाई जा सकती. न सही दूसरों के लिए पर कम से कम अपनों की
खुशी के लिए चन्द सकारात्मक कदम उठाकर हम रोज नववर्ष का आनन्द उठा सकते हैं. बस इस एहसास को समझने की जरूरत है, अपनों को करीब
लाने की जरूरत है, समाज के लिए जागने की जरूरत है. नववर्ष की सच्ची शुभकामनाएँ इसी में समाहित हैं.
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