31 दिसंबर 2014

मोमबत्तियाँ.. जाम.. होंठों की जुगलबन्दियाँ.. लड़खड़ाते मदमस्त बदन... शो मस्ट गो ऑन



अभी समापन नहीं हुआ मगर सेज सज गई है आगमन की. स्वागत को तैयार हैं रंगीन जगमग बत्तियाँ, छलकने को बेताब हैं जाम से बाहर आने को मदमस्त पेय, थिरकने को सज-संवर चुकी हैं अल्लहड़ जवानियाँ, बेहूदा शोर अपने आपको वातावरण में बिखेर देने को छटपटा रहा है. कल तक शाम को निकला पड़ते थे जो झुण्ड, समूह हाथों में मोमबत्तियाँ-तख्तियाँ लेकर आज वे ही लबरेज होंगे नई-नई अदाओं से. ये आयोजन कोई साधारण आयोजन नहीं, स्वागत है इक्कीसवीं सदी के एक और वर्ष का. कितना मस्तमौला माहौल, सब कुछ विस्मृत कर देने की हद तक पहुँच जाने का जूनून. लगता नहीं कि जिन आँखों में आज रात मादकता तैर रही होगी, उन आँखों ने किसी की मौत पर आँसू बहाए थे; ये अंदाज़ा लगाना कठिन होगा कि जो हाथ लड़खड़ाते जिस्मों को संभालने को आतुर हो रहे होंगे, वे हाथ किसी की सहायता के लिए उठे थे; कितना दुष्कर होगा उन लरजते होंठों से होंठों का मिलन जिन होंठों से किसी शोषित को न्याय दिलाने की आवाज़ उठी थी.
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उफ़..!!! एक झटके में दुःख, दर्द को बिसराकर अपने में सिमट जाने का हुनर हम भारतीयों में कबसे, कैसे आ गया; वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा के मध्य एक मैं और एक तू की संकल्पना ने कैसे जन्म ले लिया; मानसिक आकर्षण से इतर शारीरिक निकटता की भावभूमि कब यहाँ बनकर तैयार हो गई पता ही नहीं चला. इस पता नहीं चलने वाली दुरुहता के मध्य ये भी संशय बनने लगा कि क्या अब हम वाकई आभासी रिश्तों, संबंधों की इमारत तैयार करने में लगे हुए हैं? क्या अब हमारी संवेदनाओं, शुभकामनाओं, मंगलकामनाओं आदि का कोई मोल नहीं रह गया है? आयोजनों की औपचारिकताओं में सिमटती चली जा रही जिंदगी में क्या शुभकामनाओं के आदान-प्रदान में भी औपचारिकता का सम्मिश्रण होने लगा है? क्यों साल-दर-साल शुभकामनायें देने-लेने के बाद भी सुख हमसे कोसों दूर है; क्यों हमारी बेटियाँ आज भी असुरक्षित हैं; क्यों हमारे परिवारों पर कष्टों का साया है; क्यों हमारी आँख में आंसुओं की धारा है? क्यों-क्यों-क्यों??
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ऐसे और भी सवाल हैं जो नववर्ष के आयोजन के सीने पर चिपक जाते हैं किन्तु... किन्तु तो किन्तु है, कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा. मृत्यु तो नितांत सत्य है, मरना-जीना नितांत प्राकृतिक है, आना-जाना एक चक्र है. इस प्राकृतिक चक्र के लिए दुनिया का परिचालन रुकता नहीं, रोका जाता हैं. दिन की रौशनी से रात को गुलजार नहीं किया जाता और रात के अंधेरों को दिन की कालिख नहीं बनाया जाता. लोग कल भी मरते थे, लोग आज भी मर रहे हैं, लोग कल भी मरते रहेंगे. मोमबत्तियाँ जलाने वाले हर कालखंड में मिलेंगे, श्रद्धा-पुष्प प्रत्येक कालखंड में अर्पित किये जाते रहेंगे. शोक के साथ हर्ष का साम्य ही ज़िन्दगी की जीवन्तता की निशानी है. तो फिर... जस्ट चिल यार... कम ऑन कूल ड्यूड.... शो मस्ट गो ऑन, कल जिन हाथों में मोमबत्तियाँ-तख्तियाँ थी, आज छलकते जाम होंगे, मदमस्त-लड़खड़ाते बदन होंगे; कल जो होंठ चीख रहे थे न्याय के लिए, आज वो आपसी जुगलबंदी में मगन होंगे. कल जो-जो हो रहा था, वो कल फिर-फिर होगा... बस आज की रात जश्न ही जश्न होगा. सब कुछ बिसराने का मौसम होगा.

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