भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि
का महत्वपूर्ण स्थान है। देश की राष्ट्रीय आय, रोजगार, जीवन-निर्वाह,
पूँजी-निर्माण, विदेशी व्यापार, उद्योगों आदि में कृषि की सशक्त भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। देश की
लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है, वहीं लगभग 64 प्रतिशत श्रमिकों को कृषि क्षेत्र में
रोजगार प्राप्त है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का सराहनीय योगदान होने के
साथ-साथ सम्पूर्ण विश्व में भी कृषि के कारण ही भारत की साख बनी हुई है। चाय तथा
मूँगफली के उत्पादन में भारत का विश्व में पहला स्थान है तो चावल के उत्पादन में
दूसरा तथा तम्बाकू के क्षेत्र में तीसरा स्थान है। भारतीय अर्थव्यवस्था को गति
देने और विश्व बाजार में भी अपना स्थान रखने वाली भारतीय कृषि इसके बाद भी पिछड़ेपन
की स्थिति से जूझ रही है। यह समस्या यहाँ की आर्थिक, सामाजिक,
प्राकृतिक स्थितियों के साथ-साथ अन्य कारणों से भी है। जोतों का
छोटा आकार होना, कृषि की मानसून पर निर्भरता, भू-स्वामित्व प्रणाली का दोषपूर्ण होना, वित्त
सुविधाओं का अभाव, परम्परागत ढंग से कृषि करना, जनसंख्या का दवाब आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनके कारण भारतीय कृषि पिछड़ी दशा
में है। इसके अतिरिक्त कृषि पदार्थों के विपणन की व्यवस्था भी इसमें सहयोगी भूमिका
का निर्वाह कर रही है।
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वर्तमान में हमारे देश में
कृषि विपणन व्यवस्था में कई प्रकार के दोष देखने में आये हैं। इन दोषों के कारण
किसानों को उनकी फसल का सही मूल्य प्राप्त नहीं हो पाता है, इससे वे
उत्पादन की दिशा में भी हतोत्साहित होते हैं। विपणन व्यवस्था में एक दोष संग्रहण
का होता है। ग्रामीण क्षेत्रों में फसल-संग्रहण के लिए मिट्टी के बर्तन, कच्चे कोठों का इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे संग्रहण से उपज के सड़ने-गलने,
कीटनाशको चूहों आदि से नष्ट होने का खतरा अधिक रहता है। विपणन
व्यवस्था के दोष के रूप में परिवहन साधनों को भी रखा जा सकता है। ग्रामीण क्षेत्र
में परिवहन व्यवस्था सुलभ न होने के कारण किसान बड़ी मंड़ियों, सहकारी मंडियों तक नहीं पहुँच पाते। फसल के आवागमन सम्बन्धी कठिनाई को
देखते हुए वे अपनी फसल को गाँव में ही बेचने को विवश हो जाते हैं। मध्यस्थों की
बहुत बड़ी संख्या भी विपणन प्रणाली का एक दोष है। किसानों के मंडी में पहुँचने के
पूर्व ही तमाम दलाल सक्रिय हो जाते हैं। इससे किसान को कभी-कभी अपनी उपज का लगभग 50 प्रतिशत तक ही दाम मिल पाता है। दलालों की सक्रियता के अतिरिक्त
अनियंत्रित मंडियों का संचालन भी विपणन व्यवस्था को प्रभावित करता है। इस प्रकार
की मंडियों में कपटपूर्ण नीतियों के चलते किसान लगातार शिकार होते रहते हैं। इसके
अलावा मूल्य की सही जानकारी न लगना भी विपणन व्यवस्था की एक कमी कही जायेगी।
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दरअसल हमारे देश में
उदारीकरण, औद्योगीकरण के बाद से उद्योगों में तो कई तरह से परिवर्तन किये गए, उद्योगों
के विकास के लिए सम्बंधित नियम-कानूनों में व्यापक संशोधन किये गए किन्तु कृषि
क्षेत्र में सुधार की तरफ सकारात्मक रूप से ध्यान नहीं दिया गया। कृषि क्षेत्र में
अभी भी किसान अपने उत्पाद को सन 1953 में बने एपीएमसी कानून के तहत बेचने को
बाध्य हैं। इसके अंतर्गत किसान अपनी फसल आढ़तियों, जो कहीं न कहीं दलाल के रूप में
काम करते हैं, के सहारे बेचने को विवश होते हैं। इस कानून के द्वारा न तो नए
व्यापारियों को लाइसेंस मिलता है और न ही नई मंडियों का निर्माण किया जा रहा है। इसके
उलट हो ये रहा है कि जो विपणन संस्थाएं आधुनिकीकरण के लिए कार्य करने को बनाई गईं
थीं वे बजाय इस क्षेत्र में काम करने के राज्य सरकारों के लिए राजस्व उगाही का
माध्यम बन गईं हैं। हालाँकि वर्ष 2003 में इस कानून में
संशोधन करके एक मॉडल एपीएमसी कानून बनाया गया, जिसमें निजी तथा कॉरपोरेट सेक्टर को
विपणन नेटवर्क बनाने का रास्ता खोला गया। इसके बाद भी राजस्व नुकसान की आशंका के
चलते और आढ़तियों की जबरदस्त लोबिंग के कारण देश के अधिसंख्यक राज्यों द्वारा इस
कानून को अपनाया नहीं गया है। इस कारण किसान अभी भी अपनी फसल को सीधे उपभोक्ता को
बेचने के स्थान पर इन दलालों, मध्यस्थों के हाथों की कठपुतली बने हुए हैं।
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इस तरह की विषम परिस्थितयों
के बीच किसानों को मल्टीब्रांड रिटेल के सब्जबाग दिखाये जा रहे हैं, जबकि आवश्यकता
इस बात की है कि किसान को उसकी फसल का उचितमूल्य प्राप्त हो। सभी किसान उत्साहजनक
रूप से देश के कृषि विकास में सहायक सिद्ध हों तो आवश्यक है कि उनकी फसल के लिए
उचित विपणन व्यवस्था का निर्माण किया जाये। इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह श्रेणी
विभाजन और मानकीकरण के अनुसार फसल के उत्पादन पर जोर दे। मंडियों में पक्के
माल-गोदामों का निर्माण करे। आकाशवाणी के द्वारा, दूरदर्शन के द्वारा तथा सरकार अपनी मशीनरी के
द्वारा समय-समय पर किसानों को उपज मूल्य की सही-सही जानकारी उपलब्ध करवाने की
व्यवस्था करे। इसके साथ-साथ सरकार को चाहिए कि नियंत्रित मंडियों के स्वरूप के
साथ-साथ ग्रामीण स्तर पर छोटी-छोटी नियंत्रित मंडियाँ हों जिससे छोटे किसान भी
अपनी फसल को सही दाम पर बेच कर उसका उचित मूल्य प्राप्त कर सकें।
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