26 मई 2014

आमंत्रण की औपचारिकता कार्यवाही की औपचारिकता न बने




जिस दिन से नरेन्द्र मोदी के नाम की घोषणा भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में हुई थी, उसी दिन से उन्हें आलोचनाओं का निशाना बनाया जा रहा है. अनावश्यक विरोध के केंद्र में रहे उनके अनेक कार्यों की तरह ही उनके शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित अतिथियों पर भी विवाद आरम्भ हो गया. इसमें भी मुख्य रूप से विवाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को आमंत्रण भेजे जाने पर उठा. प्रथम दृष्टया इस खबर को सुनकर बुरा सा महसूस होता है. आखिर उसी पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को शपथ ग्रहण समारोह में बुलाने की क्या आवश्यकता थी जिसने कदम-कदम पर देश के साथ छल किया है; हमारे जवानों को मौत के घात उतारा है; उनके सिरों को काट कर ले जाने के बाद उनका अपमान किया है; हमारे देश के बंदियों के साथ वहशियाना हरकतें की हैं. इस आमंत्रण पर याद आता है अटल बिहारी वाजपेयी जी का पाकिस्तान में बस ले जाना और पाकिस्तान द्वारा पीठ पीछे कारगिल घुसपैठ को अंजाम देना.
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यहाँ बुरा लगना इस कारण से भी महसूस किया जा रहा है क्योंकि माना जा रहा था कि भाजपा सत्ता में आते ही आतंकवाद पर, पाकिस्तानी जेलों में बंद भारतीयों पर, कश्मीर पर पाकिस्तान से दो टूक बात करेगी. ऐसा नहीं हुआ और उसने अपने पहले औपचारिक समारोह में ही पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को आमंत्रित कर डाला. इस फैसले की कूटनीतिज्ञ दृष्टि से देखने की आवश्यकता है. यहाँ पहली बात ये जानने की है कि शपथ ग्रहण समारोह में सिर्फ पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को ही आमंत्रित नहीं किया गया है. इसमें सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित किया गया है, जिसमें भारत, पाकिस्तान के साथ-साथ नेपाल, भूटान, श्रीलंका, मालदीव, बांग्लादेश और अफगानिस्तान भी शामिल हैं. राजनैतिक दृष्टि से दक्षिण एशियाई क्षेत्र का अपना ही महत्त्व है और इसमें भी एकमात्र भारत है जो नेतृत्व करने की क्षमता रखता है, नेतृत्व करने की स्थिति में है भी. सामरिक दृष्टि से भी इस क्षेत्र के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता है. हिन्द महासागर क्षेत्र में वैश्विक महाशक्तियां लगातार कब्ज़ा करने की कोशिश में लगी रहती हैं. ऐसे में इस क्षेत्र में भारत के द्वारा शक्ति संतुलन की स्थिति बनाये रखने का प्रयास लगातार बना रहता है.
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इस आमंत्रण के द्वारा भाजपा ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अपनी तरफ से कटुता समाप्त करने की पहल को दर्शाया है तो नई सरकार के रूप में पाकिस्तान के साथ नई स्थिति बनाने की पहल की है. इस पहल का असर तुरंत होते भी देखा गया है. पाकिस्तान और श्रीलंका ने अपनी जेलों में बंद भारतीय मछुआरों को बिना शर्त रिहा कर दिया है. शपथ ग्रहण के बहाने सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को एकसाथ आमंत्रण से उनकी एकजुटता का परिचय वैश्विक समाज ने देखा है साथ ही इन देशों को भी सीधा सा सन्देश देने सम्बन्धी कार्य किया गया है जिससे भविष्य में ये भी भारत विरोधी कृत्यों को रोकने, न करने की मानसिकता बना सकें क्योंकि इधर हाल के वर्षों में तत्कालीन केंद्र सरकार की सुस्ती, चुप्पी, निष्क्रियता से इन देशों के द्वारा भी भारत विरोधी बयानबाजी लगातार की जाती रही है.
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इस निर्णय को अभी अंतिम नहीं स्वीकारना चाहिए क्योंकि अब सरकार अपने कार्यों को आरम्भ करेगी. यदि हर बार की तरह पाकिस्तान की ओर से पीठ में छुरा भोंकने का काम किया जाता है, सीमापार से आतंकी घटनाओं को जारी रखा जाता है, भारतीय सुरक्षा, आज़ादी, अस्मिता से खिलवाड़ किया जाता है, भारतीय बंदियों की रिहाई हेतु सार्थक कदम नहीं उठाये जाते हैं, हिन्द महासागर क्षेत्र की सुरक्षा को खतरे में डाला जाता है तब पूरा देश वर्तमान निर्वाचित सरकार से किसी ठोस कदम की अपेक्षा रखेगी. यदि तब भी कूटनीति, विदेशनीति जैसे जुमलों का प्रयोग किया गया, तब भी शांतिवार्ता का राग अलापा गया तो ये वर्तमान सरकार की घनघोर नाकामी और जनता के प्रति किया गया विश्वासघात होगा. अभी नरेन्द्र मोदी को, नवगठित सरकार को कार्य करने देने का अवसर दिया जाये, जो कूटनीतिज्ञ पहल की गई है उसके परिणाम का इंतज़ार किया जाए. सरकार की ओर से भी इस बात के प्रयास किये जाएँ कि ये कूटनीति सार्थक सफलता प्राप्त करे न कि क्रिकेट, संगीत, महफ़िलों, वार्ताओं, यात्राओं में ही सिमटकर रह जाए.
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