ये पोस्ट हमारे
ब्लॉग की आठ सौवीं पोस्ट है, कुछ अलग हट के लिखने की सोच रहे थे और कई-कई मुद्दों
पर दिमाग जाने के बाद भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखा जाये. क्या-क्या और
किस-किस पर नहीं लिखा इतनी सारी पोस्ट में. मई २००८ के आरम्भ में शुरू किये अपने
इस ब्लॉग के द्वारा विभिन्न मुद्दों पर लिखा, बहुत से लोगों का स्नेह मिला, बहुत
से लोगों का कोप भी सहा; कुछ लोग जुड़ते चले गए, कुछ लोग जुड़-जुड़ कर भी दूर होते
गए. ऐसे में लगा कि कुछ अपनी इस यात्रा के बारे में ही लिखा, बताया जाए. इसमें भी
मन नहीं भरा क्योंकि इस बारे में पहले भी लिख चुके हैं. फिर लगा कि इस पोस्ट में
विशुद्ध अपने बारे में ही कुछ लिखा जाये क्योंकि अपने ऊपर ही कुछ नहीं लिखा अभी
तक. (दूसरा तो कोई वैसे ही हम पर लिखने से रहा) इधर बहुत समय से खुद पर लिखने के लिए कुछ सोचा
भी जा रहा है, वो भी आत्मकथा के रूप में.
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जिंदगी के चार दशक
कम नहीं होते हैं अपने बारे में कुछ लिखने के लिए और यही सोचकर आत्मकथा लिखना शुरू
भी कर दिया है. हाँ, आत्मकथा लिखना है तो नाम भी रखना पड़ेगा, सो ‘कुछ सच्ची कुछ
झूठी’ नाम भी सोच लिया है. कुछ मित्रों को इस नाम पर ‘कुछ झूठी’ शब्द पर आपत्ति हुई,
हो सकता है कि उनकी आपत्ति सही हो किन्तु हमारी दृष्टि में आत्मकथा खुद की कहानी
लिखने से ज्यादा खुद के द्वारा जीवन के समझने को, लोगों को देखने-परखने को, अपने
प्रति लोगों के नजरिये को, अपने साथ गुजरे तमाम पलों के अनुभवों को समेटने-सहेजने
का माध्यम मात्र है. इसमें सच तो सच के रूप में है ही किन्तु कुछ ऐसे सच, जिसके
सामने आने से दूसरों की सामाजिकता, दूसरों के व्यक्तिगत जीवन, दूसरों की गोपनीयता
पर किसी तरह का संकट आता हो; किसी की मर्यादा, किसी का सम्मान, किसी के आदर्शों को
ठेस पहुँचती हो, को कुछ कल्पनाशीलता का आवरण ओढ़ा कर पेश किया जायेगा. हमारे लिए
यही ‘कुछ झूठी’ साथ रहेगा किन्तु सत्य के साथ.
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दरअसल हमने अपने
जीवन में बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ सहा है. बहुत कुछ अनुभव इस तरह के हैं जिन्होंने
समय से पूर्व हमें बड़ा बना दिया. सुख की बारिश को देखा है तो दुखों की तपती धूप भी
सही है; गैरों का साथ पाया है तो अपनों को बेगाने होते भी देखा है; समाज के कठोर धरातल
पर खुद को खड़ा किया है तो ठोकर खाकर खुद को संभाला भी है. बनते-बिगड़ते कार्यों से,
खट्टे-मीठे अनुभवों से, बचपन-युवावस्था से, घर-बाहर से, दूसरों से-अपने आपसे,
सुख-दुःख से बहुत-बहुत कुछ सीखा है. हताशा, निराशा, नकारात्मकता को कभी भी खुद पर
हावी नहीं होने दिया है. जीवन को खुशनुमा बनाये रखे का हमने एक मूलमंत्र बना रखा
है कि ‘भूतकाल से सीखकर वर्तमान को सुधारो, भविष्य कैसा होगा ये किसी को नहीं पता
है.’ और यही कारण है कि हँसना.. खूब खुलकर हँसना हमारी आदत में है; हर फ़िक्र को
धुंए में उड़ाना हमारी फितरत में है (सिगरेट वाला धुआँ नहीं); मौज-मस्ती,
यारी-दोस्ती निभाना हमारी दिनचर्या में है; अपने लिए नहीं दूसरों के लिए जीना
हमारी जीवनशैली में है; बेधड़क होकर, निडर होकर, बेख़ौफ़ होकर जीना हमारी विरासत में
है. और ये उसी स्थिति में संभव है जबकि आपके साथ आपके अपने तो हों ही, गैर भी आपके
अपनों जैसे लगते हों और यही हमारी सम्पदा है, हमारी पूँजी है. हमारा पूरा परिवार
तो हमारे साथ है ही, हमारे मित्र, हमारे सहयोगी भी हमारे अपने हैं और इस पूँजी के
दम पर ही “कभी हसरत थी आसमां छूने की, अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की” को अपना
दर्शन बना रखा है.
. इस ब्लॉग की 800वीं पोस्ट
800 पोस्टों की ढेर सारी शुभकामनाएं, हमने भी चर्चा में काफ़ी पोस्टे लगाई हैं आपकी। जय बुंदेलखंड :)
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