किन्नरों को तीसरी
श्रेणी में शामिल करने और उनको आरक्षण देने के न्यायालयीन आदेश आने से क्या होगा?
क्या ऐसे लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने में सफलता मिलेगी? क्या ऐसे बच्चों
के साथ भेदभाव किया जायेगा? क्या कोई
परिवार अपने ऐसे किसी बच्चे का त्याग नहीं करेगा? ये वे चंद सवाल हैं जो इस फैसले
के बाद स्वाभाविक रूप से उपजते हैं. बहरहाल, अदालत के इस फैसले का स्वागत होना
चाहिए किन्तु अब आरक्षण देने से अधिक आवश्यकता सामाजिक जागरूकता में और तेजी लाये
जाने की है. प्राकृतिक रूप से स्त्री एवं पुरुष से अलग इस किन्नर समाज को तिरस्कार
की नज़र से देखा जाता है. शादी-विवाहों में, बच्चों के जन्मोत्सव पर इनके बधाई
गीतों में इस समाज की सहभागिता चंद पलों के लिए देखी जाती है. इधर चंद आपराधिक
प्रवृति के लोगों ने किन्नर रूप धारण करके ट्रेन में, प्लेटफ़ॉर्म में, त्यौहार आदि
पर जबरन चंदा वसूली जैसा काम शुरू कर दिया, इससे भी इस समाज के प्रति लोगों का
नजरिया घृणित रूप में परिवर्तित हुआ है.
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२१वीं सदी में एक
दशक गुजार देने के बाद भी सामाजिक मानसिक सोच में व्यापक परिवर्तन नहीं हुआ है. बेटियों
को गर्भ में मारने की कुप्रवृति चल ही रही है, दहेज़ का दानव विकराल होता ही जा रहा
है, महिलाओं को दोयम दर्जे का समझने की मानसिकता कम नहीं हुई है ऐसे में किन्नरों
के प्रति सामाजिक सोच में एकाएक परिवर्तन आना बहुत मुश्किल है. किसी परिवार में
ऐसे बच्चे के जन्मने के बाद उसका पालन-पोषण परिवार वालों ने ही किया हो, ऐसा बहुत
कम देखने को मिला है. ये समझने की आवश्यकता है कि किन्नर स्वयं में बच्चे जन्मने
में अक्षम हैं, ऐसे में आरक्षण जैसी व्यवस्था तब काम करेगी जबकि समाज ऐसे बच्चों
को स्वीकारना शुरू करे. अपने आरंभिक जीवन-काल से ही ऐसे किसी बच्चे को तिरस्कृत
करना शुरू कर दिया जाता है. ऐसे में उसकी शिक्षा, उसकी उच्च शिक्षा, उसका रहन-सहन
आदि ऐसी स्थितियाँ हैं जिनको आरक्षण से पहले सुलझाया जाना आवश्यक है.
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अदालत ने लम्बे समय
से किन्नर समाज की चली आ रही एक माँग को स्वीकार करके एक पहल की है, अब इस पहल को
आगे ले जाने का जिम्मा समाज का होना चाहिए. ऐसे बच्चों के साथ भेदभाव न किया जाये,
सामान्य बच्चों के साथ उनकी शिक्षा के अवसर उपलब्ध करवाए जाएँ, समानता के साथ उनको
शेष परिवारीजनों के साथ दूसरे कार्यों में सम्मिलित किया जाये. दरअसल समाजसुधारकों
को, स्वयं किन्नर समाज को इस बात पर विचार करना होगा कि ऐसे कितने लोग हैं जो
अदालत के इस फैसले के बाद किसी भी किन्नर से मित्रता करेंगे? कितने लोग ऐसे हैं जो
किसी किन्नर को अपने घर में बुलाकर उसके साथ गपशप, चाय-नाश्ता, खाना-पीना करेंगे?
कितने लोग ऐसे होंगे जो अपने पारिवारिक अनुष्ठानों में, शुभकार्यों में किन्नरों
को मेहमान की तरह आमंत्रित करेंगे? ऐसे कितने लोग होंगे जो सड़क चलते किसी किन्नर
से बात करने वालों पर टीका-टिप्पणी नहीं करते हैं? जब तक सामाजिक सोच को नहीं बदला
जायेगा, किन्नरों को भी इन्सान नहीं समझा जायेगा, इनके बारे में फैली भ्रांतियों
को दूर नहीं किया जायेगा तब तक ऐसे किसी भी कदम से लाभ नहीं होने वाला. और इसके
लिए खुद किन्नर समाज को भी अपने चारों ओर बनाया बंदिशों का, रहस्यमयी घेरा तोड़ने
की जरूरत है; महज नाच-गाकर, बधाई गाकर, चंदा वसूल कर धनार्जन करने के बजाय समाज की
मुख्यधारा में आने का प्रयास उन्हें भी करना होगा.
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