जैसे-जैसे समाज
विकास के रास्ते तय कर रहा है वैसे-वैसे राजनीति में नकारात्मकता बढती जा रही है. ऐसा
राजनीतिज्ञों के बयानों के, राजनैतिक दलों के कारनामों से, समर्थकों की हरकतों से
स्पष्ट दिखता है. जातिगत राजनीति का विरोध करने वाले जातिगत आधार पर टिकट देते नजर
आते हैं, शुचिता की बात करने वाले नैतिक रूप से कमजोर दिखाई देते हैं, विकास की
चर्चा करने वाले विनाश के कारनामे रचते आ रहे हैं. ऐसा किसी एक पार्टी, किसी एक
व्यक्ति का हाल नहीं कमोबेश पूरा राजनैतिक परिदृश्य इसी तरह का बना दिख रहा है. इस
समूचे परिदृश्य में राजनैतिक दलों को स्वार्थ दिखाई दे रहा है, अपनी सीट दिखाई दे
रही है, सत्ता दिखाई दे रही है और यही कारण है कि न केवल मतदाताओं की भावनाओं से
खिलवाड़ किया जा रहा है बल्कि देश की इज्जत, मान, मर्यादा को भी दाँव पर लगाया जा
रहा है.
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तुष्टिकरण के नाम पर,
मुस्लिम वोटों को रिझाने के नाम पर अराजकतापूर्ण बयान दिए जा रहे हैं, किसी के
द्वारा किसी समय करवाए गए गोलीकांड की याद दिलाई जा रही है, किसी के द्वारा एनकाउंटर
को फर्जी बताकर वोट खींचने का काम किया जा रहा है, किसी को कश्मीर भारत का हिस्सा
नहीं लगता है, कोई भारतीय नक़्शे से कश्मीर को ही समाप्त किये दे रहा है, किसी के
लिए आतंकवादी के लिए अदालत में खड़ा होना बहुत क्रांतिकारी लग रहा है. ये स्थितियाँ
न केवल विचारधाराओं के मर जाने का द्योतक हैं बल्कि राष्ट्रहित, जनहित के प्रति भी
संज्ञाशून्य होने की परिचायक हैं. चंद वोटों की खातिर, सता के लालच में इस तरह के
कदम किसी भी रूप में उचित नहीं कहे जा सकते हैं.
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इसी तरह से मतदाताओं
की भावनाओं के साथ जबरदस्त खिलवाड़ किया जा रहा है. कल तक जिनके विरोध के नाम पर
मतदाताओं को अपने पाले में खड़ा किये रहते थे आज उन्हीं विरोधियों के साथ गलबहियाँ
करते हुए नए-नए समीकरण तलाशे जा रहे हैं. विरोध के नाम पर वोट बटोरने के साथ ही अब
उनके साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की अलग कहानी बताई जा रही है. दलों के घोषणा-पत्रों
की चर्चाएँ हो रही हैं पर मतदाताओं से उनकी जरूरतों के बारे में चर्चा भी नहीं हो
रही है. सत्ता, सीट के लालच में सब्जबाग दिखाया जा रहा है. विकास-योजनाओं से विरत
रहकर मुफ्त की जमीन उपलब्ध करवाई जा रही है. ये राजनीति नकारात्मकता को जन्म दे
रही है. इस तरह की राजनीति से सत्ता तो हासिल की जा सकती है किन्तु राजकाज नहीं
किया जा सकता है. इस तरह की राजनीति से दल विशेष के प्रतिनिधियों की संख्या बढ़ाई
जा सकती है किन्तु देशहित को नहीं बढ़ाया जा सकता है. काश! हमारे राजनैतिक दल,
हमारे राजनेता तथा इन सभी के समर्थक इस सत्य को समझ पाते.
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