23 जनवरी 2014

नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के प्रति फ़र्ज़ निभाने के लिए हम भी जागरूक हों




इस देश में ही क्या, समूचे विश्व में सुभाष चन्द्र बोस के अतिरिक्त शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा जिसकी मृत्यु पर आज तक संदेह बना हुआ है. इस संदेहास्पद स्थिति के साथ-साथ एक विद्रूपता ये है कि देश की आज़ादी के पूर्व से लेकर आज़ादी के बाद अद्यतन भारत सरकार द्वारा किसी भी तरह की ठोस सकारात्मक कार्यवाही नहीं की गई है. हालाँकि तीन-तीन जाँच आयोगों के द्वारा विभिन्न सरकारों ने औपचारिकता का ही निर्वहन किया है और वो भी कुछ जागरूक सक्रिय नागरिकों के हस्तक्षेप के बाद. इस बात को बुरी तरह से प्रसारित करने और एक तरह की सरकारी मान्यता देने के बाद कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु १८ अगस्त १९४५ को एक विमान दुर्घटना में हो गई थी, अधिसंख्यक लोगों द्वारा इसे स्वीकार कर पाना मुमकिन नहीं हो पा रहा था और ये स्थिति आज भी बनी हुई है. नेता जी की कार्यशैली, उनकी प्रतिभा, कार्यक्षमता, देश के प्रति उनकी भक्ति, निष्ठा को देखने-जानने के बाद उनके प्रशंसकों ने नेता जी की उपस्थिति को विभिन्न व्यक्तियों के रूप में स्वयं से स्वीकार किया है. इसका सशक्त उदाहरण गुमनामी बाबा के रूप में देखा जा सकता है.
विमान दुर्घटना और मृत्यु का सच
नेता जी की विमान दुर्घटना को लेकर, उनकी मृत्यु को लेकर, मृत्यु की अफवाह के बाद उनके जीवित होने को लेकर, विभिन्न अवसरों पर देश में ही उनके सदृश्य व्यक्तियों के देखे जाने को लेकर निरंतर संदेहास्पद हालात बनते रहे हैं. नेता जी की मृत्यु की खबर और बाद में उनके जीवित होने की खबर के सन्दर्भ में सामने आते कुछ तथ्यों ने भी समूचे घटनाक्रम को उलझाकर रख दिया है. जहाँ एक तरफ नेता जी की मृत्यु एक बमबर्षक विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने पर बताई जा रही है वहीं ताईवानी अख़बारसेंट्रल डेली न्यूज़से पता चलता है कि १८ अगस्त १९४५ के दिन ताइवान (तत्कालीन फारमोसा) की राजधानी ताइपेह के ताइहोकू हवाई अड्डे पर कोई विमान दुर्घटनाग्रस्त नही हुआ था. इसी तथ्य पर हिन्दुस्तान टाइम्सके भारतीय पत्रकार (मिशन नेताजीसे जुड़े) अनुज धर के ई-मेल के जवाब में ताईवान सरकार के यातायात एवं संचार मंत्री लिन लिंग-सान तथा ताईपेह के मेयर ने जवाब दिया था कि १४ अगस्त से २५ अक्तूबर १९४५ के बीच ताईहोकू हवाई अड्डे पर किसी विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने का कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है। (तब ताईहोकू के इस हवाई अड्डे का नाम मात्सुयामा एयरपोर्टथा और अब इसका नामताईपेह डोमेस्टिक एयरपोर्टहै।) बाद में २००५ में, ताईवान सरकार के विदेशी मामलों के मंत्री और ताईपेह के मेयर मुखर्जी आयोग के सामने भी यही बातें दुहराते हैं. यदि विमान दुर्घटना की बात को और उस दुर्घटना में नेता जी की मृत्यु की खबर को एकबारगी सत्य मान भी लिया जाए तो उनके अंतिम संस्कार में होने वाली देरी भी उनकी मृत्यु पर संदेह पैदा करती है. भारतीय परम्परा के अनुसार किसी भी शव का अंतिम संस्कार यथाशीघ्र करने की परम्परा है किन्तु नेता जी का अंतिम संस्कार २२ अगस्त को किया गया. नेता जी की मृत्यु को अफवाह मानने वालों का मानना है कि वो शव नेता जी का नहीं वरन एक ताईवानी सैनिक इचिरो ओकुराका था जो बौद्ध धर्म को मानने वाला था. बौद्ध परम्परा का पालन करते हुए ही उसका अंतिम संस्कार मृत्यु के तीन दिन बाद नेता जी के रूप में किया गया. इस विश्वास को इस बात से और बल मिलता है कि सम्बंधित शव का अंतिम संस्कार चिकित्सालय के कम्बल में लपेटे-लपेटे ही कर दिया गया थ, जिससे किसी को भी ये ज्ञात नहीं हो सका कि वो शव किसी भारतीय का था या किसी ताईवानी का. मृत्यु प्रमाण-पत्र का दोबारा बनाया जाना भी इस संदेह को पुष्ट करता है कि नेता जी की मृत्यु विमान दुर्घटना में नहीं हुई थी.
दुर्घटना के बाद नेता जी का प्रवास
अब सवाल ये भी उठता है कि यदि नेता जी उस विमान दुर्घटना में जीवित बच गए थे तो फिर वे गए कहाँ थे? तमाम वर्ष उन्होंने कहाँ व्यतीत किये? ये तथ्य किसी से भी छिपा नहीं है कि नेता जी का आज़ाद हिन्द फ़ौज की स्थापना और इटली, जापान, जर्मनी से मदद लेने के पीछे एकमात्र उद्देश्य भारत देश को स्वतंत्र करवाना था. उनकी इन गतिविधियों को ब्रिटेन किसी भी रूप में पसंद नहीं कर रहा था. ऐसे में उसने नेता जी को अंतर्राष्ट्रीय अपराधी घोषित कर दिया था.  इधर अंग्रेज भले ही भारत देश को स्वतंत्र करना चाह रहे थे किन्तु वे नेता जी को राष्ट्रद्रोही घोषित करके उनके ऊपर मुकदमा चलाने को बेताब थे. इसके साथ-साथ नेता जी के सहयोगी रहे स्टालिन और जापानी सम्राट तोजो किसी भी कीमत पर नेता जी को ब्रिटेन-अमेरिका के हाथों नहीं लगने देना चाहते थे. वे इस बात को समझते थे कि मित्र राष्ट्र में शामिल हो जाने के बाद ब्रिटेन-अमेरिका उन पर नेता जी को सौंपने का अनावश्यक दवाब बनायेंगे. हो सकता है तत्कालीन स्थितियों में इस दवाब को नकार पाना इनके वश में न रहा हो. ऐसे में इन सहयोगियों ने एक योजना के तहत नेता जी को अभिलेखों में मृत दिखाकर उन्हें सोवियत संघ में शरण दिलवा दी हो. इस तथ्य को इस कारण से भी बल मिलता है कि नेता जी समेट वे तीन व्यक्ति (नेताजी के सहयोगी और संरक्षक के रूप में जनरल सिदेयी, विमान चालाक मेजर ताकिजावा और सहायक विमान चालक आयोगी) ही इस दुर्घटना में मृत दर्शाए गए थे जिन्हें सोवियत संघ में शरण दिलवाई जानी थी.
आज़ाद देश में अज्ञातवास का कारण  
नेता जी तत्कालीन दौर में भले ही सोवियत संघ में अज्ञातवासी जीवन व्यतीत करते रहे हों किन्तु इस बारे में बहुत से लोगों को विश्वास है कि वे देश की आज़ादी के बाद देश में निवास करने लगे थे. ऐसे में पुनः वही सवाल खड़ा होता है कि आज़ाद देश में नेता जी को अज्ञातवास में रहने को किस कारण से मजबूर होना पड़ा? इस सवाल के जवाब के लिए बहुत से लोग गाँधी, नेहरू के साथ नेता जी के वैचारिक मतभेद का जिक्र करते हैं. इसका भी संदेह जताया जाता है कि चूँकि ब्रिटेन नेता जी पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलाना चाह रहा था, ऐसे में संभव है कि आज़ादी के समय किसी अप्रत्यक्ष शर्त या समझौते के तहत नेता जी को ब्रिटेन को सौंपे जाने पर सहमति बन गई हो. इसके अतिरिक्त नेता जी की लोकप्रियता, उनकी कार्यक्षमता, बुद्धिमत्ता, राष्ट्रभक्ति को नेहरू-गाँधी और उनके समर्थक भली भांति जानते-समझते थे. ऐसे में वे नहीं चाहते होंगे कि नेता जी वापस आकर देश का नेतृत्व करने लग जाएँ. कई बार सरकारी पक्षकारों, नेहरू समर्थकों की तरफ से इस तरह से संकेत भी दिए गए थे कि नेहरू और नेता जी में कितने भी वैचारिक मतभेद रहे हों पर स्वयं नेहरू जी भी नहीं चाहते थे कि नेता जी पर ब्रिटेन राष्ट्रद्रोही के रूप में मुकदमा चलाये. हो सकता है कि ये सही हो क्योंकि आज़ादी के बाद संसद से जब-जब नेता जी की दुर्घटना की जाँच करवाए जाने की माँग उठी, नेहरू ने उस पर ध्यान नहीं दिया. यहाँ तक कि वे कोई भी जाँच आयोग बनाये जाने की माँग भी लगातार नौ-दस वर्षों तक टालते रहे.
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जब जनप्रतिनिधि गैर-सरकारी जाँच आयोग बनाने का निर्णय ले लेते हैं तब नेहरू १९५६ में पहले जाँच आयोग के गठन का निर्णय लेते हैं. यहाँ भी नेहरू अपनी मानसिकता को दर्शाने से नहीं चूकते हैं. इस जाँच आयोग का अध्यक्ष वे उस शाहनवाज़ खान को बनाते हैं जिसका कोर्ट मार्शल खुद पर नेता जी उसके द्वारा किये गए विश्वासघात के लिए करना चाहते थे. बाद में लाल-किले के कोर्ट-मार्शल में शाहनवाज़ ने खुद यह स्वीकार किया था कि आई.एन.ए./आजाद हिन्द फौज में रहते हुए उन्होंने गुप्त रुप से ब्रिटिश सेना को मदद ही पहुँचाने का काम किया था. इसी शाहनवाज़ को न केवल जाँच आयोग का अध्यक्ष बनाया गया वरन नेहरू के द्वारा उसे पाकिस्तान से बुलवाकर मंत्रिमंडल में सचिव बनाते हैं, बाद में रेल राज्य मंत्री भी बनाते हैं. संभव है कि ये पद-प्रतिष्ठा नेता जी की असलियत को छिपाने के लिए शाहनवाज़ को नेहरू द्वारा एक तरह की घूस होकिन्तु कालांतर में नेहरू के, केंद्र सरकार के अन्य दूसरे कदमों को देखने के बाद नेहरू की इस सोच पर लोगों की सहमति बनती नहीं दिखी. इसको आसानी से ऐसे समझा जा सकता है कि आज़ादी के बाद न तो नेता जी को और न ही उनकी आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का दर्ज़ा दिया जाता है. इसके उलट आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिकों पर राष्ट्रद्रोह करने के आरोप में मुकदमा भी चलाया जाता है, वो भी आज़ाद देश में. ये समझने की बात है कि देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले सैनिक देशद्रोही कैसे हो सकते हैं, भले ही वो लड़ाई देश के बाहर लड़ी गई हो? दरअसल आज़ादी की कीमत अंग्रेजों द्वारा लगाई जा चुकी थी और उसकी कीमत नेता जी ने चुकाई. इस तथ्य के अतिरिक्त स्टालिन द्वारा आज़ादी के बाद नेता जी को वापस भारत बुला लेने के सम्बन्ध में नेहरू को लिखा पत्र भी महत्त्वपूर्ण है. इस पत्र के जवाब में नेहरू स्टालिन को लिखते हैं, वे जहाँ हैं, उन्हें वहीं रहने दिया जाये.
जाँच-आयोगों की सत्यता
संभव है आज़ादी के बाद सत्ता प्राप्त करने के बाद नेहरू का हृदय परिवर्तन हुआ हो और उनके मन में नेता जी के प्रति खटास कम हुई हो (ऐसी संभावना कम ही दिखती है) और हो सकता ही वे खुद नेता जी को अभिलेखों में मृत बनाये रखना चाहते हों और इसीलिए किसी भी तरह के जाँच आयोगों के गठन को टालते जा रहे हों. इस न मानने योग्य तथ्य के स्वीकारने के बाद भी नेहरू की अथवा सरकार की कार्यप्रणाली ने बराबर संदेह ही पैदा किया. नेहरू के कार्यकाल में जिस तरह की लालफीताशाही, घोटालों की संस्कृति आज़ादी के तुरंत बाद ही उपजी (इसके लिए १९४८ में देश के पहले घोटाले जीप घोटालाको देखा जा सकता है और घोटाला करने वाले ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त वी.के. कृष्ण मेनन, जो नेहरूजी के दाहिने हाथ रहे थे) उसे देखकर इस पर यकीन करना संभव ही नहीं कि नेहरू खुद ही नेता जी बचाए रखना चाहते थे. इस तथ्य को सभी भली-भांति जानते थे कि नेता जी कठोर और अनुशासित प्रशासनिक क्षमता से परिपूर्ण हैं और गाँधी के शब्दों में जन्मजात नेतृत्व करने वाले व्यक्तित्व हैं, ऐसे में नेहरू अपनी सत्ता को गँवाना नहीं चाहते रहे होंगे. नेहरू के अलावा सत्ता का केन्द्रीयकरण कर चुके लोग भी नहीं चाह रहे थे कि नेता जी का सत्य किसी भी रूप में सामने आये या फिर खुद नेता जी ही सामने आयें और सत्ता विकेन्द्रित हो जाये. इस मानसिकता के चलते गठित किये गए शाहनवाज़ आयोग के निष्कर्षों को सांसदों ने, देश की जनता ने ठुकरा दिया और अंततः साढ़े तीन सौ सांसदों द्वारा पारित प्रस्ताव के बाद १९७० में इंदिरा गाँधी को जस्टिस जी० डी० खोसला की अध्यक्षता में एक दूसरा आयोग गठित करना पड़ा. इस जाँच आयोग के गठन के सम्बन्ध में भी सरकार की नीयत में खोट ही दिखाई देती है, जिसको ऐसे समझा जा सकता है कि खोसला नेहरूजी के मित्र थे; वे जाँच के दौरान ही इन्दिरा गाँधी की जीवनी लिख रहे थे; वे नेताजी की मृत्यु की जाँच के साथ-साथ तीन अन्य आयोगों की भी अध्यक्षता कर रहे थे. समझा जा सकता है कि सरकार नेता जी की मृत्यु पर उठे संशय के बादलों को दूर करने के लिए कतई संकल्पित नहीं थी. ये तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि जाँच के लिए बना तीसरा मुखर्जी आयोग कलकत्ता उच्च न्यायालय के आदेश के बाद बनाया गया. इसमें सरकार के हस्तक्षेप को नकारते हुए न्यायालय ने स्वयं ही मुखर्जी को आयोग का अध्यक्ष बना दिया तो सरकार ने उनकी जांच में अड़ंगे डालना शुरू कर दिए. इसको ऐसे समझा जा सकता है कि जो दस्तावेज खोसला आयोग को दिये गये थे, वे दस्तावेज तक मुखर्जी आयोग को देखने नहीं दिये जाते. प्रधानमंत्री कार्यालय, गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, सभी जगह से नौकरशाहों का एक रटारटाया जवाब आयोग को मिलता कि भारत के संविधान की धारा 74(2) और साक्ष्य कानून के भाग 123 एवं 124 के तहत इन दस्तावेजों को आयोग को नहीं दिखाने का प्रिविलेजउन्हें प्राप्त है.
भारत सरकार का रवैया
इन तमाम बातों, संदेहों, विश्वासों, मानसिकताओं, मतभेदों के साथ-साथ भारत सरकार के रवैये पर संक्षिप्त रूप से निगाह डालें तो इस प्रकरण की जाँच पर सकारात्मकता पर प्रश्नवाचक चिन्ह लग जाते हैं. भारत सरकार ने वर्ष १९६५ में गठितशाहनवाज आयोगको ताइवान जाने की अनुमति नहीं दी थी. समूची की समूची जाँच आयोग ने देश में बैठे-बैठे ही पूरी कर ली थी. और शायद इसी का सुखद पुरस्कार उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करके दिया गया.
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१९७० में गठितखोसला आयोगको भी रोका गया था किन्तु कुछ सांसदों और कुछ जन-संगठनों के भारी दवाब के कारण उसे ताइवान तो जाने दिया गया मगर किसी भी सरकारी या गैर-सरकारी संस्था से संपर्क नहीं करने दिया गया.
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मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार से जिन दस्तावेजों की मांग की वे आयोग को नहीं दिए गए. अधिकारियों ने वही पुराना राग अलापा कि एविडेंस एक्ट की धारा १२३ एवं १२४ तथा संविधान की धारा ७४(२) के तहत इन फाइलों को नहीं दिखाने का प्रिविलेजउन्हें प्राप्त है.
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रूस में भी जाँच आयोग को पहले तो जाने नहीं दिया गया बाद में भारत सरकार की अनुमति के अभाव में आयोग को न तो रूस में नेताजी से जुड़े दस्तावेज देखने दिए गए और न ही कलाश्निकोव तथा कुज्नेट्स जैसे महत्वपूर्ण गवाहों के बयान लेने दिए गए.
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भारत सरकार ने १९४७ से लेकर अब तक ताइवान सरकार से उस दुर्घटना की जाँच कराने का अनुरोध भी नहीं किया है.
कुछ फ़र्ज़ हमारा भी है
आज भी हमारी सरकार के ताइवान के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध नहीं कायम हो सके हैं. इसके पार्श्व में नेहरू का, सरकारों का चीन-प्रेम भी हो सकता है, नेता जी का सत्य भी हो सकता है. नेता जी के बारे में उपजे संदेह के बादलों को पहले तो स्वयं नेहरू ने और फिर बाद में केंद्र सरकारों ने छँटने नहीं दिया. पारदर्शिता बरतने के लिए लागू जनसूचना अधिकार अधिनियम के इस दौर में भी नेता जी से मामले में किसी भी तरह की पारदर्शिता नहीं बरती जा रही है. अमेरिका-ब्रिटेन-चीन आदि जैसे विकसित और सैन्य-शक्ति से संपन्न देशों के भारी दवाब के चलते भी संभव है जाँच अपनी मंजिल को प्राप्त न कर पाती हो. नेता जी दुर्घटना का शिकार हुए या अपनों की कुटिलता का; नेता जी देश लौटे या देश की सरकार ने उनको अज्ञातवास दे दिया; वे रूस में ही रहे या फिर कहीं किसी विदेशी साजिश का शिकार हो गए….ये सब अभी भी सामने आना बाकी है. ऐसे में सत्यता कुछ भी हो पर सबसे बड़ा सत्य यही है कि देश के एक वीर सपूत को आज़ादी के बाद भी आज़ादी नसीब न हो सकी. भले ही नेता जी अपने अंतिम समय में गुमनामी बाबा बनकर रहे और स्वर्गवासी हुए फिर भी उनकी आत्मा आज भी आज़ादी के लिए भटक रही है, तड़प रही है. ये हम भारतवासियों का फ़र्ज़ बनता है कि कम से कम आज़ादी के एक सच्चे दीवाने को आज़ाद भारत में आज़ादी दिलवाने के लिए संघर्ष करेंजय हिन्द!!!

 

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