खाद्य सुरक्षा बिल पर आनन-फानन केंद्र सरकार ने अपनी जल्दबाजी
दिखाकर कहीं न कहीं ये संकेत दे दिया है कि लोकसभा चुनाव किसी भी समय हो सकते हैं.
मानसून सत्र के महज चंद दिनों पहले ही अध्यादेश के रूप में इस महत्वपूर्ण बिल को
लाने की मंशा सिर्फ और सिर्फ मतदाताओं को लुभाने की है. जिस अतिशय तत्परता से अब
केंद्र सरकार इस बिल के लिए प्रतिबद्ध दिख रही है, उसका क्षणांश भी पिछले नौ वर्ष
में रही होती तो अभी तक देश को उसका लाभ (यदि मिलना होता) मिलना शुरू हो गया होता.
भोजन-रोटी से महरूम लोगों के भोजन की गारंटी देने वाले इस बिल को केंद्र सरकार ने
कभी भी प्राथमिकता में नहीं रखा. अब केंद्र सरकार इस बिल के माध्यम से अपनी धूमिल
होती छवि को सुधारने का प्रयास कर रही है; आकंठ भ्रष्टाचार में डूब चुकी कांग्रेस
को उबारने के लिए पतवार का काम कर रही है.
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बहुत से लोगों के लिए ये विवाद का विषय हो सकता है किन्तु ये
सत्य है कि भारतीय मतदाताओं की याददाश्त वाकई में कमजोर होती है. इस बात में कोई
शंका (कम से कम लेखक को) नहीं है कि आने वाले समय में जैसे-जैसे चुनाव की आहट और
तेज़ होती जाएगी, केंद्र सरकार की तरफ से पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस आदि के दामों में
कमी की जाती रहेगी. इससे मतदान के समय तक आम मतदाता अभी तक के तमाम भ्रष्टाचार को,
मंत्रियों के घोटालों को भुलाकर इस तरह की लोक-लुभावनी योजनाओं के वशीभूत होकर
उनके पक्ष में मत दे सकता है. इस समय खाद्य सुरक्षा बिल को अध्यादेश के रूप में
सामने लाने के पीछे भी यही एक महत्वपूर्ण कारक है. इस बिल से किसको कितना लाभ
मिलेगा, ये अभी भविष्य के गर्भ में है किन्तु पिछले कई महत्वपूर्ण बिलों, योजनाओं
का परिणाम देखकर ये आसानी से कहा जा सकता है कि ये बिल भी कहीं न कहीं भ्रष्टाचार,
निकम्मापन, काहिली आदि को विस्तार देगा. इससे पूर्व की मात्र दो योजनाओं, मनरेगा
और मिड डे मील, का ही आकलन कर लिया जाए तो स्पष्ट रूप से पता चलेगा कि देश का
करोड़ों रुपया सिर्फ और सिर्फ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है. मजदूरों, बच्चों में
एक तरह का निकम्मापन भर दिया है. वे शिक्षक जो सादगी और ईमानदारी के पर्याय माने
जाते थे, भ्रष्ट बना दिए गए.
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बहरहाल, केंद्र सरकार या कहें कि कांग्रेस ने अपना दांव खेल
दिया है. गरीबों, भूखों, मजबूरों से उसे कभी कोई वास्ता नहीं रहा है. आम आदमी आज
भी दाल, रोटी, सब्जी, रसोई गैस, पेट्रोल, डीजल, बिजली, सड़क, पानी आदि के लिए रो
रहा है. देश भयंकर आर्थिक संकट से गुजर रहा है, ऐसे में बजाय आर्थिक संकट सुलझाने
के इस बिल को थोपने का काम करना अदूरदर्शिता का, स्वार्थपरकता का सबूत है. केंद्र
सरकार की इस सोच की कीमत आने वाले समय में देश को, आम आदमी को ही चुकानी पड़ेगी.
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