केन्द्रीय सूचना
आयोग ने राजनैतिक दलों (अभी मात्र छः राष्ट्रीय दल) को सूचना का अधिकार अधिनियम के
अधीन किये जाने का निर्णय दिए जाने से दो तरीके की प्रतिक्रियाएं देखने-सुनने को
मिली. एक उन लोगों की तरफ से जो निर्णय से
प्रसन्न दिखे कि अब राजनैतिक दलों से भी उनका हिसाब-किताब माँगा जा सकता है और
दूसरी उन लोगों से जो राजनैतिक दलों से सम्बंधित हैं और इन लोगों ने इस निर्णय को आयोग
की तानाशाही बताया. आयोग के इस निर्णय का आम जनता को क्या लाभ होगा, राजनैतिक दलों
को क्या नुकसान होगा ये तो भविष्य के गर्भ में है किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि
इससे न तो आम आदमी को बहुत लाभ मिलने वाला है और न ही राजनैतिक दलों को बहुत बड़ा
नुकसान.
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सूचना का अधिकार
अधिनियम को लागू हुए लगभग आठ वर्ष होने को आये और इन वर्षों में आम जनता में से
चंद लोग (उँगलियों पर गिने जाने वाले) ही इसका उपयोग करते दिखे. इसी तरह से जो
संस्थाएं, व्यक्ति सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत सूचना देने के लिए नियत हैं वे
भी समय से सूचनाएँ नहीं दे रही हैं. बहुत से विभाग/संस्थान ऐसे हैं जो सूचना देते
ही नहीं हैं, और तो और प्रथम अपीलीय अधिकारी अथवा आयोग की तरफ से भी बहुत
सकारात्मक सहयोग प्राप्त नहीं होता है. अधिसंख्यक मामलों में सूचनाओं को दबा जाने,
सूचनाएँ न देने, गलत सूचनाएँ देने, सूचनाएँ समय पर न देने, अकारण सूचनाओं को न देने
जैसी कार्यवाहियां होते दिखती हैं. ऐसी स्थिति में प्रथम अपीलीय अधिकारी की भूमिका
भी बहुत विश्वसनीय, सहयोगी की नहीं दिखी है, ऐसे मामलों के आयोग में पहुँचने पर भी
ज्यादातर मामलों में आयोग ने भी सम्बंधित सूचना अधिकारी के समर्थन में ही अपने
फैसलों को दिया है. इस कारण से आम जनमानस में सूचना अधिकार अधिनियम को लेकर बहुत उत्साह
अब नहीं दिखाई देता है.
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जनसूचना अधिकारी,
प्रथम अपीलीय अधिकारी, आयोगों के इस तरह लापरवाह कदमों के पीछे कहीं न कहीं आम
जनमानस का हाथ माना जायेगा. सूचना अधिकार अधिनियम के बनने के बाद भी चंद लोगों
द्वारा इसका उपयोग किया जा रहा है. इस उपयोग में भी अधिसंख्यक मामलों में बदले की
भावना, दूसरे को फंसाने की मंशा देखने को मिली है. कुछ जागरूक, सक्रिय सूचना
कार्यकर्ताओं के मारे जाने से, उनपर हमला किये जाने की घटनाओं से भी आम जनता में
भय का वातावरण बन गया है. इसके अलावा देश में आज भी जनता के बीच से शिकायत किये
जाने सम्बन्धी जागरूकता न के बराबर ही देखने को मिलती है. गली-मोहल्ले में,
चाय-पान की दुकान पर खड़े होकर सरकार को गरियाने का काम, अव्यवस्थाओं को रोने का, अधिकारियों
को कोसने का काम कर लिया जाता है पर लिखित में शिकायत करने का हौसला चन्द मुट्ठी
भर लोग ही जुटा पाते हैं. जनता की यही सुसुप्तावस्था न केवल जनसूचना अधिकारियों को,
प्रथम अपीलीय अधिकारियों को शेर बनाती है बल्कि सूचना अधिकार अधिनियम को भी कमजोर
करती है.
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केन्द्रीय आयोग के
फैसले से भले ही ख़ुशी का, दुःख का वातावरण फैलता सा दिख रहा हो किन्तु इसका बहुत
लाभ जनता को नहीं मिलने वाला और इसका कोई नुकसान राजनैतिक दलों को होता नहीं दिखता
है. इस अधिनियम के सम्बन्ध में एक बात गौर करने लायक ये है कि जबतक आम जनता शिकायत
करना नहीं सीखेगी, हर छोटी-छोटी कमी पर सर उठाकर खड़ा होना नहीं सीखेगी, ‘ठीक है,
सब चलता है’ जैसी सोच से बाहर निकलने का प्रयास नहीं करेगी तब तक ऐसे सशक्त
अधिनियम सिर्फ और सिर्फ शोपीस बने दिखते रहेंगे.
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