अभी कुछ समय पहले तक
अपनी तमाम नाकामियों, असफलताओं को छिपाने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम को लागू
करने का श्रेय लेकर खुद अपनी पीठ थपथपाने वाली कांग्रेस आज इसी अधिनियम का विरोध
करती दिख रही है. खुद को देश की एकमात्र पाकसाफ पार्टी कहने वाली माकपा भी विरोध
का झंडा उठाकर कांग्रेस के साथ उतर आई. इसी तरह से खुद को सभी दलों से अलग दिखाने
वाली भाजपा ने भी केन्द्रीय सूचना आयोग के फैसले का स्वागत नहीं किया. आयोग के
फैसले से राजनैतिक दलों का बिलबिलाना समझ में आता है, आखिर आयोग ने आम आदमी को भी
इन दलों के आय-व्यय का हिसाब-किताब लेने का अधिकार जो दे दिया है. देखा जाये तो
इसमें गलत क्या है, आज जिस तरह से सभी दलों के द्वारा चुनावों में अंधाधुंध खर्च
किया जा रहा है, पोस्टर, बैनर में जिस तरह से जनता के धन का अपव्यय किया जा रहा
है, उसे देखते हुए जनता को भी ये जानना आवश्यक हो जाता है कि राजनैतिक दलों को
मिलने वाले धन का स्त्रोत क्या है.
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आयोग के फैसले के
विरोध में कांग्रेस जिस तरह से सामने आई है और इससे पहले भी एकाधिक अवसरों पर उसके
द्वारा सूचना का अधिकार अधिनियम में परिवर्तन करने की मंशा जाहिर की है, उससे
साबित होता है कि सूचना का अधिकार अधिनियम आन्दोलनकारी जनता के भारी दबाव के कारण
व्यवहार में आया न कि कांग्रेस की अपनी नियत के चलते. सूचना अधिकार अधिनियम के
बनने के पूर्व इसको लेकर जिस तरह से सामाजिक संगठनों द्वारा, सामाजिक कार्यकर्ताओं
द्वारा क्रियाविधि की जा रही थी, उसे देखते हुए कांग्रेस को उम्मीद भी नहीं रही
होगी कि राशन कार्ड, पेंशन, बिजली कनेक्शन, फण्ड आदि की सूचना उपलब्ध करवाने वाला
ये अधिनियम उनके ही गले की फाँस बन जायेगा. यदि कांग्रेस को अधिनियम के पारित होने
के समय तनिक भी भान इस बात का होता कि आगे चलकर ये अधिनियम सरकारी तंत्र को भयंकर
रूप से परेशान करता हुआ राजनैतिक दलों के लिए शिकंजा बन जायेगा तो कदाचित इसे लागू
ही नहीं किया जाता. यही कारण है कि आज भी तमाम सारे बिल सदन में पारित होने की
प्रत्याशा में लटके पड़े हैं.
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आयोग के इस फैसले का
स्वागत होना चाहिए, भले ही ऐसा राजनैतिक दलों की तरफ से न हो पर कम से कम आम
जनमानस की तरफ से ऐसा हो. जनता प्रत्येक चुनावों में करोड़ों रुपये का अपव्यय एक-एक
प्रत्याशी द्वारा होते हुए देखती है, चुनाव आयोग के लाखों रुपये की सीमा से कहीं
बहुत आगे निकल कर प्रत्येक दल, प्रत्याशी द्वारा खर्च को खुद बर्दाश्त करती है. जब
कभी भी इस सम्बन्ध में आवाज़ उठाई भी जाती है तो इसे पार्टी का चंदा कहकर समस्त
स्त्रोतों को बताने से मना कर दिया जाता है. सूचना अधिकार अधिनियम में राजनैतिक
दलों के आने को अलोकतांत्रिक कदम बताने वाले राजनैतिक दल अपनी ताकत का दुरुपयोग
करके अदालत जाने, सूचना न देने, जनसूचना अधिकारी नियुक्त न करने जैसा अलोकतांत्रिक
कदम उठा सकते हैं. राजनैतिक दलों के इस तरह के कदमों से उन तमाम गैर-सरकारी
संगठनों को भी इस अधिनियम का विरोध करने का बहाना मिल जायेगा जो
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सरकारी मदद लेते रहते हैं. देश में जबकि घनघोर अव्यवस्था दिख
रही है, हताशा-निराशा का माहौल राजनैतिक दलों की तरफ से दिख रहा है, जनता में किंकर्तव्यविमूढ़
की स्थिति दिख रही हो तब केन्द्रीय सूचना आयोग के इस फैसले का स्वागत आगे बढ़कर खुद
राजनैतिक दलों को करना चाहिए था. सूचना अधिकार अधिनियम को सरकारी मशीनरी में
पारदर्शिता बरतने के लिए बताने के साथ-साथ राजनैतिक दलों के लिए भी पारदर्शी बताने
का साहस इन राजनैतिक दलों को करना चाहिए था. आखिर सरकारी मशीनरी भी इन्हीं
राजनैतिक दलों के इर्द-गिर्द घूमती है और जब ये खुद को पारदर्शी बनाने के प्रति
सचेत नहीं होंगे तो सरकारी मशीनरी के पारदर्शी होने की, सचेत होने की कल्पना करना
भी बेमानी होगा.
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