31 मई 2013

हथियारों के विरुद्ध हथियार से मिटेगा नक्सलवाद



नक्सलवाद का असल क्रूर चेहरा अब राजनीतिज्ञों की समझ में अवश्य ही आया होगा. अभी तक जब भी नक्सलवाद का खात्मा करने की बात चाहे सदन में उठाई गई हो अथवा सदन से बाहर जनमानस द्वारा, हरेक मांग के साथ उठे अधिकतर स्वर नक्सलियों के समर्थन में ही उठे. किसी ने नक्सलियों को शोषित बताया तो किसी ने अपने बीच की अभावग्रस्त प्रजा, कोई उनको अपना भाई-बंधु बताने को आमादा दिखा तो किसी ने नक्सलवाद को अधिकारों की लड़ाई बताया. हो सकता है कि किसी समय में नक्सलवाद भूमि-वन-संपदा आदि से वंचित लोगों द्वारा अपने अधिकार की लड़ाई का प्रतीक रहा हो पर जिस तरह से विगत कुछ दशकों में नक्सलियों ने अपनी ताकत को बढ़ाकर उसका बेजा इस्तेमाल किया है उसने नक्सलवाद को आतंकवाद की श्रेणी में ही खड़ा किया है. देश के अधिसंख्यक जिलों में शस्त्र के बल पर अपनी समानान्तर सत्ता चलाना, निरपराधों को मौत की नींद बाँटना, अपने अधिकारों की प्राप्ति के नाम पर बच्चों-महिलाओं-बुजुर्गों को क्रूरता से मार देना किस अधिकार का सूचक है? 
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दरअसल अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए शुरू किये गए संघर्ष से जब नक्सलियों को सत्ता का स्वाद लगा, शस्त्रबल का एहसास हुआ, अपनी ताकत के बल पर सरकारी मशीनरी को ठप कर देने का अहंकारी भाव जागृत हुआ तब अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाले नक्सली समानान्तर सत्ता के पर्याय बनकर उभरने लगे. अपनी ताकत के बल पर इन्होंने देश के भीतर एक दूसरा देश स्थापित करने का मंसूबा पालना भी शुरू कर दिया था और इसी का दुष्परिणाम ये हुआ कि देश के बहुतायत नक्सली प्रभावित इलाकों में राष्ट्रीय पर्वों पर तिरंगा फहराया जाना स्वप्न हो गया. सोचा जा सकता है कि इस तरह की हरकतों से ये नक्सली अपने किन अधिकारों की चाहना रख रहे हैं? स्कूलों, चिकित्सालयों, अन्य दूसरे सरकारी विभागों को जबरन बंद करवाकर ये शासन-प्रशासन का विरोध नहीं कर रहे हैं बल्कि अपने लिए विकास के रास्तों को अवरुद्ध कर रहे हैं. ऐसा किसी सकारात्मक मकसद से नहीं अपितु घनघोर आतंकी मकसद से किया जा रहा है. विकास का मार्ग अवरुद्ध होने से, स्कूलों के बंद रहने से, चिकित्सालयों के न खुलने से नक्सल प्रभावित इलाकों की जनता कहीं न कहीं सिर्फ और सिर्फ इन्हीं नक्सलियों का साथ देती दिखाई देगी, या कहें कि साथ देने को मजबूर होगी.
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नक्सलियों द्वारा आये दिन जवानों को मार देना, जनता को प्रताड़ित करना, सरकारी कर्मचारियों को मौत के घाट उतारना आदि-आदि घटनाओं की कड़ी में राजनेताओं की हत्या को देखा जाना चाहिए. जहाँ तक हमारा मानना है कि जिस तरह से अमेरिका ने वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले के बाद ही आतंकवाद के अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप को स्वीकार किया था, ठीक उसी तरह से तमाम राजनेताओं के मारे जाने के बाद ये भी नक्सलवाद को एक समस्या के रूप में लेकर संभवतः उसके खात्मे के लिए प्रयास करेंगे. इस घटना के बाद भी यदि नक्सलियों को, नक्सलवाद को पोषित करने का काम किया जाता रहा तो वो दिन दूर नहीं होगा जब सम्पूर्ण देश ही नक्सलियों के चंगुल में आ जायेगा और ये प्रत्यक्ष रूप से सत्ता का सञ्चालन करते दिखाई देंगे. 
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