रेल यात्रा की अथवा रेल की विसंगतियों की जब भी बात की जाती
है तो जेहन में तुरन्त स्टेशनों, प्लेटफार्म वगैरह पर बढ़ती भीड़,
रेल के भीतर यात्रियों की आपाधापी,
टिकट, आरक्षण आदि समय से न मिलने की समस्या,
रेलवे के तमाम सारे कर्मचारियों का समय से उपस्थित न होना,
रेलों के आवागमन में भयंकर तरीके से होने वाली लेटलतीफी,
रेलों के रखरखाव आदि की छवि उभर कर आती है। यदि इसे अन्यथा
के रूप में न लिया जाये तो ये सारी स्थितियाँ वर्तमान में रेल की विसंगतियाँ नहीं
वरन् उसकी पहचान बन गईं हैं। आज किसी एक-दो स्टेशनों पर नहीं,
किसी एक-दो रेलों में नहीं बल्कि लगभग शतप्रतिशत स्थानों पर
उक्त स्थितियाँ विद्यमान हैं। रेल के यात्रियों ने भी इन स्थितियों को आत्मसात् कर
लिया है और आसानी से स्वीकार कर लिया है कि रेल यात्रा के समय इस तरह की स्थितियाँ
तो सामने आयेंगी ही। इन तमाम सारी घटनाओं के अतिरिक्त भी बहुत सी घटनाएँ और
स्थितियाँ इस प्रकार की होती हैं जो रेल की विसंगतियों को परिभाषित करती हैं।
इनमें आरक्षित यात्रियों को रेलवे स्टाफ के द्वारा परेशान करना,
प्लेटफार्म पर रेलवे पुलिस की ज्यादतियाँ,
चलती ट्रेन में अपराधियों को संरक्षण आदि-आदि स्थितियाँ इस
तरह से निर्मित हो रहीं हैं कि इनसे निपटना आसानी से सम्भव नहीं लगता है।
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वर्तमान स्थिति यह है कि रेलवे की तरफ से सामान्य श्रेणी के
यात्रियों के प्रति सुविधाओं का टोटा कर दिया गया है। किसी भी ट्रेन में कम से कम
सामान्य श्रेणी के डिब्बे और उनमें चढ़ती भयंकर भीड़ अब रेलवे को दिखाई देनी बन्द हो
गई है। इसी सामान्य श्रेणी के यात्रियों की भीड़ को प्लेटफार्म पर कतार लगाकर ट्रेन
में प्रवेश करना होता है। यह बात आप सभी को आश्चर्य में डाल रही होगी किन्तु यह
एकदम सच है। यहाँ यात्रियों का कतार लगाकर ट्रेन में प्रवेश करना और सामान्य
श्रेणी के डिब्बे में अपनी सीट को प्राप्त कर लेना आपसी सामंजस्य के कारण नहीं
वरन् खाकी वर्दी के रोब के कारण उत्पन्न होता है। लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर वहीं
से बनकर चलती लखनऊ-मुम्बई पुष्पक एक्सप्रेस में सामान्य श्रेणी के यात्रियों को
अपनी सीट पर बैठने के लिए कतार में लगना होता है। इस तरह की स्थिति कोई एक-दो दिन
की नहीं प्रत्येक दिन की है और रेलवे प्रशासन की नाक के ठीक नीचे इस तरह की
विसंगतिपूर्ण कार्यवाही चलती रहती है। लेखक ने स्वयं बहुत सारी यात्राओं को,
बहुत से स्थानों की सैर करके रेल की विसंगतियों को स्वयं
अनुभव किया है। अपने इन अनुभवों से देखा और समझा है कि हम जिन रेलवे विसंगतियों की
बात करते हैं दरअसल वे रेलवे की लापरवाहियाँ हैं किन्तु आये दिन रेल के सफर के
दौरान जिस तरह के घटनाक्रम से हम दो-चार होते हैं उन्हें रेल की विसंगतियाँ कहना
ही तर्कपूर्ण बैठता है।
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भोपाल से आगे की यात्रा में तो स्वयं एक वरदीधारी ने इस बात
को बताया था कि किस तरह से भोपाल से युवाओं के द्वारा मौज-मस्ती के लिए रेल का
उपयोग किया जाता है और इस काम के लिए अच्छी खासी वसूली भी की जाती है। आश्चर्य की
बात तो यह है कि इस तरह की मौजमस्ती में नवयुवक-युवतियों के मध्य बनने वाले
शारीरिक सम्बन्धों तक की बात का खुलासा उस व्यक्ति ने किया था। और तो और यह सारा
खेल किसी साधारण श्रेणी के डिब्बे में नहीं, द्वितीय श्रेणी के शयनयान कोचों में नहीं वरन् वातानुकूलित
श्रेणी के कोचों में देखने को मिलता है। इस बात को कोच के सहायक द्वारा भी
स्वीकारा गया कि वातानुकूलित कोच में आरक्षण के साथ और बिना आरक्षण के साथ कुछ सुविधा
शुल्क चुकाने पर इन युवक-युवतियों को कोच में जगह मिल जाती है। यह कुछ नये प्रकार
की विसंगति है जो वर्तमान के भूमण्डलीकरण और यौन स्वच्छन्दता के दौर में निकल कर
सामने आई है। ऐसा नहीं है कि इसमें किसी प्रकार की असंगतता नजर आती हो क्योंकि
हमारे देश में इस समय युवाओं की जो मानसकिता बन रही है उसमें उनके लिए रिश्तों और
तमाम सारे सम्बन्धों के ऊपर शारीरिक सम्बन्ध आते हैं।
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ऐसे ही वर्ग की एक मानसिकता और बनती जा रही है कि पैसे के
बल पर जो चाहे काम करवाये जा सकते हैं। देखने में आया है कि इस तरह के वर्गों
द्वारा रेल में छोटे-मोटे अपराधों को भी अंजाम देना शुरू कर दिया जाता है। आज से
लगभग पाँच वर्ष पूर्व लेखक की दिल्ली-चण्डीगढ़ यात्रा के दौरान लेखक का एक-दो इस
तरह के लोगों से पाला पड़ा जो रेल में घूम-घूम कर सामान को बेचा करते हैं। कम कीमत
के सामनों के अलावा उनसे लम्बी बातचीत और पैसे का लालच देने के बाद पता चला कि वे
लड़के जो उम्र में लगभग 14-15 वर्ष के होंगे रेल में अवैध रूप से नशीले पदार्थों की
बिक्री,
सामानों की स्मगलिंग, चोरी आदि में भी सहयोग कर देते हैं। ऐसे लड़कों का कहना था
कि वे स्वयं यह कार्य नहीं करते किन्तु रेलवे स्टेशनों पर कुछ बड़े लोग कार्य करते
हैं जिनके दवाब में उन्हें यह कार्य करना पड़ता है। बातचीत से पता चला कि ये लड़के
एक प्रकार के मालवाहक के रूप में कार्य करते हैं, किसके पास सामान पहुँचाना है, कब पहुँचाना है, कितना पहुँचाना है यह सभी कुछ पहले से ही तय हो जाता है बाद
में ये लड़के सिर्फ डिलीवरी का कार्य करते हैं।
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ऐसे एक-दो नहीं दसियों उदाहरण है जिनसे लेखक स्वयं दो-चार
हुआ है और उनका अनुभव लिया है। ऐसे में यात्रियों की बढ़ती संख्या,
प्लेटफार्म पर, स्टेशनों पर बढ़ती भीड़, रेलवे द्वारा मूलभूत सुविधाओं की कमी आदि-आदि विसंगतियाँ
बहुत ही छोटी सी मालूम पड़ती हैं। यह विचारणीय होना चाहिए कि रेल में जहाँ कि एक
व्यक्ति अपने गन्तव्य तक पहुँचने के लिए बैठा है और उसके साथ पुलिसिया बदसलूकी हो,
रेल में चलते गैंग के द्वारा मारपीट आम घटनायें बन जायें तो
रेल की किस प्रकार की विसंगति को प्राथमिकता में रखकर उसका निदान करना अनिवार्य
प्रतीत होता है। हताशा और निराशा का माहौल इस कारण से भी है कि रेल की ज्यादातर
उक्त विसंगतियाँ चलती ट्रेन में होती हैं और इनकी किसी भी प्रकार की रिपोर्ट किसी
न किसी स्टेशन पर ही होती है जो अप्रत्यक्ष रूप से कार्य कर रहे विभिन्न रसूखदार
लोगों के साये में कार्य कर रहे होते हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसे में यात्री चुप
लगाने के और कुछ करना भी मुनासिब नहीं समझता है। रेलवे की कार्यप्रणाली पर यदि
विचार करें तो देखने में आता है कि पार्सलघर से सामान की चोरी का पता न लगना,
स्टेशन से, ट्रेन से हुई चोरी का पता न चल पाना,
चलती ट्रेन में जेबकतरों, जहरखुरानियों पर अंकुश न लग पाना,
रेल में अवैध रूप से कार्य कर रहे वेंडरों,
सामान बेचने वालों का घुस आना बिना किसी सहयोग के सम्भव
नहीं दिखता है।
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ऐसे में सवाल यह उठता है कि रेल स्वयं में इस विसंगति को
पाल रही है अथवा वह इस विसंगति से निपट नहीं पा रही है?
सम्भव है कि रेलवे प्रशासन इस तरह के अराजक लोगों के सामने
इतना पंगु बन गया हो कि वह चाह कर भी कुछ करन पा रहा हो अथवा यह भी सम्भव है कि
स्थानीय स्तर पर रेलवे प्रशासन को भी किसी न किसी प्रकार का लोभ-लालच दिखा कर इन
अराजक व्यक्तियों-संगठनों द्वारा अपना उल्लू सीधा किया जाता हो?
बहरहाल जो भी हो, जैसी भी स्थिति हो उस स्थिति में भी रेलवे को इस तरह की
विसंगतियों से निपटने के उपाय करने चाहिए। यह कह देने से कि यह स्थिति हमारे
क्षेत्र की नहीं है अथवा इस तरह की कोई घटना रेल में घटित नहीं हो रही है,
रेलवे के द्वारा खुद से आँखें चुराना ही है। रेल यात्रा के
सुखमय होने का प्रमाण अच्छे और भव्य रेलवे स्टेशन-प्लेटफार्म नहीं,
कम्प्यूटरीकरण नहीं, उन्नत वातानुकूलन प्रणाली नहीं,
लम्बी दूरी की सुपरफास्ट ट्रेनें नहीं वरन् यात्रियों की
सुरक्षा-सुविधा है। इसमें रेल नकारात्मक दिशा में जाती दिख रही है।
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