दीपावली आई और चली भी गई। तमाम अतिजागरूक लोगों ने पटाखों
के चलाये जाने से बचने के प्रवचन दिये और समझाया कि इससे प्रदूषण किस तरह फैल रहा
है;
पर्यावरण को किस तरह से नुकसान हो रहा है। ऐसे जागरूक लोगों
के विचारों का स्वागत होना ही चाहिए क्योंकि वर्तमान समय में इस तरह की समाजोपयोगी
बातों पर बहुत कम लोग ही विचार करते हैं। अब यदि दीपावली के पटाखों के धुंए,
शोर आदि के प्रदूषण से इन लोगों ने समाज को कुछ हद तक
सुरक्षित कर लिया हो तो अब वे समाज में फैले दूसरे प्रदूषणों की ओर भी अपनी दृष्टि
दौड़ायें,
सम्भव है कि उनके प्रयासों से इस ओर का प्रदूषण भी कुछ कम
हो जाये।
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सड़कों पर हमारी बेटियों, बहिनों, माताओं आदि के साथ मनचलों द्वारा छेड़छाड़ की,
फिकरेबाजी की घटनायें आम हो गई हैं। हम देखकर भी अनदेखा कर
देते हैं,
शायद इस कारण से कि वो महिला हमारे परिवार की नहीं। और यदि
वो महिला हमारे घर की भी हो जाये तो अपनी सामाजिक प्रस्थिति के गिरने के डर से बात
को दबा जाते हैं। इस प्रदूषण से निजात पाने का कोई तरीका हमने सोचा नहीं है।
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परिवार में महिलाओं के साथ आये दिन किसी न किसी रूप में
हिंसा देखने को मिलती है। ऐसा करके हमारे समाज के अधिकांश परिवार स्वयं को सबसे
अलग सिद्ध करने के प्रयास में लगे रहते हैं। घनघोर रूप से शिक्षित होने के बाद भी
पारिवारिक महिला हिंसा के प्रति हमारे समाज की सोच में बदलाव लगभग न के बराबर हुआ
है। यह एक ऐसा प्रदूषण है जिसे यदि समय रहते समाप्त न किया गया तो हमारे आने वाली
कई पीढ़ियां विकृत मानसिकता के साथ समाज में जन्म लेती रहेंगी।
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बेटा-बेटी एकसमान का नारा देते-देते हुए भी गर्भ में
बच्चियों को मार देने के कुकृत्य समाज में लगातार बढ़ रहे हैं। आधुनिकतावादी होने
का दम भरने के बाद भी हमारी सोच बेटियों के प्रति अभी संकुचित है। गर्भस्थ शिशु के
स्वास्थ्य की जांच का नाम लेकर बच्चे के लिंग का पता लगाने के लिए समाज की
व्याकुलता में हम किस तरह का प्रदूषण फैलाने में लगे हैं,
यह हम जानकर भी अनजान बने रहते हैं।
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कला, संस्कृति, साहित्य आदि-आदि के माध्यम से समाज को दिशा देने का कार्य
किया जाता रहा है। इधर देखने में आ रहा है कि समाज में इनमें बुरी तरह से गिरावट
आने लगी है। इन सशक्त माध्यमों के द्वारा अपसंस्कृति हमारे घरों के अंदर सहजता से
प्रवेश कर हमारे बच्चों, युवाओं के मन-मष्तिष्क में घर करती जा रही है। यह प्रदूषण
उस प्रदूषण से लाख गुना बदतर है जो पटाखों के फोड़ने से होता।
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हमारी पाठ्य पुस्तकों से, हमारी रोजमर्रा की सीखने-समझने वाली सामग्रियों से हमारे
महापुरुषों से सम्बन्धित जानकारियों का नित अभाव सा होता जा रहा है। हमारी आने
वाली पीढ़ी को देश के गौरवशाली इतिहास से जानबूझ कर दूर किया जा रहा है,
किसी न किसी रूप में उसके विकृत रूप को प्रस्तुत किया जा
रहा है। इस युवा पीढ़ी को बजाय संस्कृति-सभ्यता के उन्हें मल्टीनेशनल कम्पनियों के
बड़े-बड़े पैकेज के बारे में समझाया जा रहा है। जाहिर है,
यह प्रदूषण पारिवारिकता को ही नष्ट कर देगा।
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आये दिन देखने में आता है कि वृद्ध माता-पिता असहाय होकर,
अपने बच्चों से प्यार के दो पल पाने की चाह लिये उनसे
लगातार दूर होते चले जाते हैं। अपने छोटे से परिवार में सुख,
संतुष्टि, खुशी खोजती पीढ़ी को संयुक्त परिवार के लाभ के बारे में कभी
बताया-समझाया ही नहीं जाता है। इस कारण से उनके लिए अपनी बीवी,
बच्चों के अलावा कोई और मंजूर नहीं होता है। अपने माता-पिता
ही उन्हें बोझ मालूम पड़ने लगते हैं। इस प्रदूषण को दूर करने की ओर ध्यान यदि जल्द
ही न दिया गया तो आने वाले समय में समाज में एकाकी परिवार बहुतायत में देखने को
मिलेंगे।
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उक्त के अलावा और भी बहुत से बिन्दु ऐसे हैं जिनके द्वारा
सिर्फ और सिर्फ प्रदूषण ही फैल रहा है किन्तु उसको दूर करने की ओर किसी का भी
ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नशे की समस्या, भ्रष्टाचार, रिश्वत, भूख, बेरोजगारी, मंहगाई, गरीबी, बीमारी, हत्या, आतंकवाद, क्षेत्रवाद, अलगाववाद, नक्सलवाद आदि-आदि ऐसी समस्याएं हैं जो कहीं न कहीं सामाजिक,
सांस्कृतिक प्रदूषण को फैलाने में लगी हैं। जिन लोगों को
समाज में मात्र एक दिन चन्द पटाखों का शोर, धुंआ प्रदूषण फैलाता दिखता है;
पर्यावरण को प्रभावित करता दिखता है;
मानव समाज के लिए खतरा दिखता है उन्हें ये सांस्कृतिक
प्रदूषण लगता है दिखते हुए भी नहीं दिखता है अथवा वे अतिजागरूक लोग इसे देखकर भी
अनदेखा कर रहे हैं।
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