06 अगस्त 2012

सकारात्मक परिवर्तन अभी बाकी है मेरे दोस्त


21वीं सदी में भी एक दशक से अधिक का समय गुजारने के बाद भी सामाजिक स्थिति में बहुत सकारात्मक परिवर्तन देखने को नहीं मिले हैं। यह कहना गलत होगा कि परिवर्तन नहीं हुए हैं, परिवर्तन तो हुए हैं किन्तु उनमें सामाजिकता की दृष्टि से सकारात्मकता देखने को नहीं मिली है। इंसान के रहन-सहन में परिवर्तन हुआ है, खान-पान में परिवर्तन हुआ है, जीवन-शैली में परिवर्तन देखने को मिला है, कार्य-शैली में व्यापक परिवर्तन हुआ है, महत्वाकांक्षाओं में परिवर्तन हुआ है, लालसायें बदली हैं, सोच बदली है, मानसिकता में परिवर्तन हुआ है पर इनमें से किसी से भी सामाजिकता में सकारात्मक परिवर्तन नहीं आया है।

देखा जाये तो आज के समय में, आधुनिकता के इस दौर में, आपाधापी के इस दौर में, अपनी आकांक्षाओं को, हसरतों को किसी भी प्रकार से पूरा करने की होड़ के दौर में सामाजिकता की, सकारात्मकता की बात करना बेमानी सा प्रतीत होता है। रिश्तों की मर्यादा को हमने बचाये रखने का प्रयास छोड़ दिया है। अब समाज में कोई भी रिश्ता हो उसमें सिर्फ और सिर्फ स्त्री-पुरुष को खोजा जाता है, शारीरिक सम्बन्धों को खोजा जाता है। किसी भी प्रकार की कार्य-शैली हो, किसी भी प्रकार की कार्ययोजना हो सभी में शारीरिकता अन्तर्निहित दिखती है। कम से कम समय में ‘शॉर्टकट’ के द्वारा सफलता को प्राप्त करने के लिए, भौतिक संसाधनों को जुटाने के लिए, अकूत धन-सम्पत्ति पैदा करने के लिए किसी भी रास्ते का, किसी भी साधन का प्रयोग किया जा सकता है। यहां तक कि इस ‘शार्टकट’ में देह तक को शामिल कर लिया जाता है।

संस्कारों की, मर्यादा की, शालीनता की वकालत करने वालों को दकियानूसी कहा जाता है; महिलाओं की स्वतन्त्रता को बाधित करने वाला कहा जाता है; बच्चों पर निरंकुशता बनाये रखने वाला कहा जाता है; समाज के एक वर्ग को गुलाम बनाये रखने की मानसिकता वाला बताया जाता है। सत्यता क्या है, इसका परिणाम क्या होता है, क्या होना चाहिए यह स्वयं उस तबके को सोचना होगा जो अपने आपको कहीं न कहीं किसी न किसी प्रकार के जाल में फंसा हुआ पाता है। यह और बात है कि वह मकड़जाल किसका है, किसी व्यक्ति का, किसी धन का, किसी पद का, किसी लालच का, किसी प्रतिष्ठा का।

स्थिति यह है कि समाज में सर्वत्र विकास दिख रहा है पर भौतिकता का; इंसान-इंसान के मध्य विनाश का, अविश्वास का, शंका का, भेदभाव का, वैमनष्यता का। इस विकास में किसी भी तरह की सकारात्मकता की उम्मीद करना लगभग बेमानी सा है और यही कारण है कि हम आये दिन अपने नौनिहालों को नशे की गिरफ्त में देखते हैं। आये दिन किसी न किसी नौजवान को अपराध की राह पर बढ़ता हुआ पाते हैं। आये दिन हमारी बेटियां अविवाहित मातृत्व का शिकार होती हैं। कूड़े के ढेर पर बच्चों का मिलना लगातार जारी है। प्रत्येक दिन कहीं न कहीं कोई न कोई महिला किसी न किसी दरिन्दे की दरिन्दगी का शिकार बनती है। बूढ़े मां-बाप आये दिन सड़क के किनारे बेसहारा टहलते दिखाई देते हैं। महानगरों के साथ-साथ छोटे-छोटे कस्बों तक में बुजुर्ग लोग हत्या-लूटपाट का शिकार हो रहे हैं। और भी तमाम विकृत उदाहरण हमारे आसपास दिखाई देते हैं।

परिवर्तनों को इसके बाद भी हम विकासगामी कह कर पुकारते हैं। आखिर पुकारना भी चाहिए, आखिर हम मंगल की यात्रा पर निकल चुके हैं; हमने गॉड पार्टिकल को खोज निकाला है; हमने अवांछित गर्भ को रोकने की गोली बनाकर महिलाओं को स्वतन्त्रता दे दी है; हमने गाड़ियों में अंधाधुंध रफ्तार देकर अपने युवाओं को मौत की तरफ जाने का रास्ता दिखा दिया है; हमने प्रत्येक इंसान के हाथों में मोबाइल देकर उसे समूचे संसार से जोड़ दिया है। अब बताइये इतने सारे विकासात्मक परिवर्तन के बाद किस बेवकूफ को इस बात की सुध होगी कि समाज में सकारात्मक परिवर्तन हो रहा है अथवा नहीं। अब इसके लिए किसी न किसी को कुर्बान तो होना ही पड़ेगा, भले ही वो हमारी युवा पीढ़ी ही क्यों न हो।

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चित्र गूगल छवियों से साभार






1 टिप्पणी:

  1. 1 आपका आलेख एक सार्थक पहल है।
    2 लेकिन आप का सोच इस ओर नहीं गया है कि हम परिवारवादी और त्‍यागवादी सोच के स्‍थान पर पश्चिम की व्‍यक्तिवादी और भोगवादी सोच को स्‍थापित करते जा रहे हैं। जब हमारी संस्‍कृति में समाज है ही नहीं तो फिर कैसे हम समाज का चिंतन करेंगे? हम तो केवल व्‍यक्तिवाद और भोगवाद के पीछे दौड़ रहे हैं, जब इसकी अति हो जाएगी तब हमे याद आएगा परिवार और समाज। अभी तो ये दुत्‍कारने की वस्‍तु बने हुए हैं।

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