अबकी बाबा रामदेव अपनी ताकत फिर से दिखाने को आतुर हैं। अन्ना और उनकी टीम की ओर से लगातार विरोधाभासी बयानों के आने से अन्ना आन्दोलन से जुड़े लोगों को झटका सा लगता दिख रहा है। बाबा रामदेव के आन्दोलन के लिए अरविन्द केजरीवाल ने मना किया तो किरन बेदी ने अपने समर्थन की सहमति व्यक्त की, अब इधर अन्ना हजारे भी अपनी सहमति देते दिख रहे हैं। ये घटनायें भले ही देखने में छोटी लग रही हों किन्तु इतनी छोटी भी नहीं हैं कि देश की जनता इसे समझ न सके।
पिछले वर्ष अन्ना हजारे को देशव्यापी समर्थन मिला, क्या महानगर, क्या नगर, क्या कस्बे, क्या गाँव सभी जगह से लोगों ने भरपूर समर्थन अन्ना आन्दोलन को दिया। इस अप्रत्याशित समर्थन के बाद ऐसा लगा जैसे अन्ना टीम बौरा सी गई है। उनके सदस्य आपस में ही विरोधाभासी बयान देने लगे। कुछ लोग अन्ना का साथ छोड़कर भागे और कुछ को भगा दिया गया। बहरहाल...यहाँ मुद्दा यह नहीं है। अभी हाल ही में अन्ना टीम के जिस तरह से अलग-अलग बयान आये हैं उन्हीं के संदर्भ में अरविन्द केजरीवाल की झाँसी में हुई बैठक याद आ गई।
29 अप्रैल 2012 को झाँसी में अरविन्द केजरीवाल तथा संजय सिंह ने उपस्थित होकर कार्यकर्ता सम्मेलन को सम्बोधित किया था साथ ही उपस्थित लोगों की बातों को भी ध्यानपूर्वक सुना था। उसमें अरविन्द केजरीवाल को स्पष्ट रूप से जनपद जालौन की टीम की ओर से कहा भी गया था कि वे लोग इस तरह की विरोधाभासी बयानवाजी से बचें। आगामी वर्षों के लिए, विशेष रूप से लोकसभा चुनाव 2014 के लिए, जो रणनीति बनाने की बात की गई थी उसके अनुसार चुनाव लड़ने वाले पाकसाफ व्यक्तियों को चुनकर संसद में भेजने की रणनीति है। अन्ना टीम का विचार है कि कम से कम 270 सांसद जिताकर संसद भेजे जायें फिर उनकी दम पर ही जनलोकपाल बिल को पारित करवाया जाये।
इस प्रकार की कठिन और साहसिक रणनीति के बाद वर्तमान के हालातों से लगता नहीं है कि अब अन्ना टीम के पास कोई ठोस रणनीति है। देखा जाये तो अन्ना टीम अपने चन्द साथियों के मध्य समन्वय बना नहीं पा रही है तो फिर कैसे सम्भव है कि सांसद की शक्ति-सत्ता लेकर संसद में अन्ना टीम के समर्थन से जीत कर पहुँचे सांसद इनका साथ ही देंगे? यहाँ कुछ सँभाले नहीं जा रहे हैं, 270 को कैसे सँभालेंगे, पता नहीं।
इसके अलावा स्वयं अन्ना टीम के सदस्यों के द्वारा सांकेतिक रूप से और अरविन्द केजरीवाल के द्वारा स्पष्ट रूप से कहा गया कि इस संसद से जनलोकपाल बिल पास होने की सम्भावना नहीं है। यहाँ एक बात तो स्पष्ट है कि सदन को, संसद को गरियाकर उसके खिलाफ प्रयोग होने वाला कानून तो नहीं ही बनावाया जा सकता है। एक और बात कि खुद अन्ना और उनकी टीम के द्वारा उत्तराखण्ड में पारित जनलोकपाल बिल को सबसे अच्छा और सशक्त बिल बताया गया था। ऐसी स्थिति के बाद भी अन्ना टीम बताये कि लगभग चार माह के बाद भी उत्तराखण्ड में कितने भ्रष्ट मंत्रियों, विधायकों, अधिकारियों को जेल की सजा हो गई है अथवा कितनों के विरुद्ध कार्यवाही की संस्तुति लोपाल द्वारा की गई है? इससे अच्छा तो उत्तर प्रदेश में लोकपाल कार्य कर रहा है जहाँ कि किसी भी तरह का जनलोकपाल बिल पारित नहीं है। क्या अन्ना टीम को एक इसी प्रदेश, उत्तराखण्ड को मॉडल प्रदेश के रूप में विकसित करके पूरे देश के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत नहीं करना चाहिए?
अन्ना की और उनकी टीम की वास्तविक भावी रणनीति क्या है, इस बात को लेकर संशय व्याप्त है। देखा जाये तो अन्ना टीम को मीडिया का चस्का लग गया है और इसी कारण से वो आये दिन टी0वी0 पर अपना चेहरा दिखाती रहती है। अन्ना की कोर कमेटी अथवा दिल्ली जैसी जगहों से जुड़े लोगों को सम्भवतः सफलता-असफलता से बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता होगा किन्तु छोटे-छोटे कस्बों से, शहरों से जो लोग इस आन्दोलन में पूरी तन्मयता के साथ जुड़े रहे उनपर अन्ना टीम की इस तरह की गैर-जिम्मेदाराना गतिविधियों से, बयानवाजी से व्यापक फर्क पड़ता है।
ऐसी विषम परिस्थिति में अन्ना और उनकी टीम को याद रखना चाहिए कि इस तरह के आन्दोलन रोज-रोज नहीं खड़े होते हैं। जनता का समर्थन भी प्रत्येक आन्दोलन को आसानी से नहीं मिलता है। स्वस्फूर्त रूप से भीड़ का बार-बार एकत्र नहीं किया जा सकता है। इसलिए अपने आन्दोलन की भावी रणनीति स्पष्ट करें, स्वयं अपने आप पर लगाम लगायें और वाणी का संयम बरतें। अन्ना जैसे समझदार व्यक्तित्व को समझना चाहिए कि इस तरह की गलत बयानवाजी, विरोधाभासी क्रियाकलापों से आन्दोलनकारी भीड़ जुड़ती नहीं बिखरती ही है और अभी इस आन्दोलन से जुड़े लोगों को बिखराने की नहीं जोड़कर बनाये रखने की आवश्यकता है। काश! अन्ना और उनकी टीम इतनी छोटी सी बात को समझ ले?
चित्र गूगल छवियों से साभार
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