28 दिसंबर 2011

अन्ना आन्दोलन अब भटक रहा है


कई बार अतिवादिता के कारण अच्छी भली नीति भी बर्बाद हो जाती है। इस बात का प्रत्यक्ष उदाहरण आज-कल में देखने को मिला। सदन में लोकपाल बिल को लेकर बहस हो रही थी और मुम्बई में अन्ना का अनशन चल रहा था। इस अनशन में उतनी भीड़ नहीं जुटी जितनी कि टीम अन्ना ने सोच रखी थी। देश की जनता के साथ-साथ सरकार ने भी अन्ना के अनशन भाग-3 को महत्व नहीं दिया।

हम स्वयं भी भ्रष्टाचार के खात्मे के लिए अन्ना-रामदेव आन्दोलन से और अन्य दूसरे आन्दोलनों से जुड़े रहे। इसके बाद भी हमारा मानना है कि अतिवादिता ने अन्ना आन्दोलन के इस तीसरे भाग को लगभग असफल ही कर दिया है। सम्पूर्ण देश में भी वह लहर देखने को नहीं मिली जो पहले दो चरणों में देखने को मिली थी। देश की जनता को भले ही सुसुप्त समझा जा सकता हो किन्तु उसे मूर्ख-बेवकूफ नहीं समझा जा सकता है। देश की आजादी के समय की और इक्कीसवीं सदी की भारतीय जनता के सोचने-विचारने में बहुत व्यापक अन्तर आ चुका है। अन्ना टीम अभी भी देश की जनता को उसी दौर का जनमानस समझकर अपनी नीतियों को थोपने जैसा कार्य कर रही है।

इस विषय पर किसी भी बुद्धिजीवी को निरुत्तर होना पड़ सकता है कि जब देश की संसद में लोकपाल बिल पर बहस चल रही हो उस समय महज तीन दिन के लिए अन्ना को अनशन करने की क्या जरूरत पड़ गई थी? यदि सांकेतिक अनशन करके ही सरकार पर एक प्रकार का दबाव बनाना था तो फिर पूरे देश में जेल भरो आन्दोलन जैसी नीति का व्यापक प्रचार-प्रसार करने की आवश्यकता क्यों आन पड़ी? और यदि इसका मकसद सरकार को दबाव में लेना था तो अब ऐसा कौन सा सकारात्मक कार्य सरकार की ओर से हो गया है कि अन्ना को अपना जेल भरो आन्दोलन वापस लेना पड़ा है? इनके अलावा और भी सवाल हैं जो अन्ना टीम के सदस्य अपनी वाकपटुता के कारण और मीडिया के चमकते कैमरों के सामने देकर जनता से बच सकते हों परन्तु उन लोगों की स्थिति के बारे में कभी अन्ना ने अथवा अन्ना टीम ने विचार किया है जो अपने आसपास के लोगों के सवालों का जबाव देने की स्थिति में आमतौर पर नहीं होते हैं?

देखा जाये तो अन्ना टीम आन्दोलन के दूसरे चरण के बाद से ही निरंकुश रूप से अथवा कहें कि अतिवादी-अहंकारी रूप से कार्य करने में लग गई थी। उसके लिए कोर कमेटी के गिने-चुने चार-पांच सदस्यों के अलावा कोई और महत्वपूर्ण नहीं है। इस बारे में भी अब उनको चिन्तन-मनन करने की आवश्यकता है। अन्ना के द्वारा अपने मुम्बई अनशन को बीच में रोकना और जेल भरो आन्दोलन को रद्द करना एक अलग कदम है और अब स्वयं को पांचों राज्यों के चुनावों में दल-विरोधी प्रचार करने की बात करना भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से स्वयं को भटकाना ही है। पांच राज्यों में विरोधी प्रचार करने से बेहतर होता कि अन्ना भ्रष्टाचार विरोध पर व्यापक नीति का निर्माण करते और अपने आन्दोलन को गिने-चुने चेहरों से बाहर लाकर आम जनता को भी इससे जोड़ते। इस आन्दोलन में अभी तक जिस आम जनता की भागीदारी हुई है वो सिर्फ और सिर्फ नारे लगाने के लिए, झंडे लहराने के लिए, भीड़ बढ़ाने के लिए ही हुई है। अन्ना को अब आम जनता को नीति बनाने के लिए, नीति-क्रियान्वयन के लिए भी जोड़ना होगा। यदि अन्ना टीम और खुद अन्ना ऐसा करने में असफल रहते हैं तो यह उनकी और उनके आन्दोलन की हार ही होगीऔर यदि ऐसा हुआ तो निश्चित ही यह एक सार्थक कदम की भ्रूण हत्या ही कहलायेगी।

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चित्र गूगल छवियों से साभार




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