अभी हाल में हमारे देश सहित सम्पूर्ण विश्व ने विश्व आबादी के सात अरब होने का जश्न सा मनाया। इस जश्न में हम भी किसी न किसी रूप में शामिल हुए। विश्व जनसंख्या की सात अरब की संख्या की स्वीकार्यता को और बच्चियों को प्रमुखता देने की दृष्टि से इस संख्या का निर्धारण किसी बच्ची के लिए ही करना था। एक ओर यदि अफ्रीकी देश में इस बच्ची के जन्म को उल्लास की दृष्टि से देखा गया तो हमारे देश में भी इसी संख्या का निर्धारण एक बच्ची के लिए करके हमने भी सात अरब की संख्या में सम्मिलित होने की औपचारिकता का निर्वाह कर लिया।
वर्तमान वैश्विक आर्थिक संदर्भ में यह महत्वपूर्ण हो सकता है कि हमारी विश्व जनसंख्या किस आँकड़े को छू चुकी है; हमारे पास इस जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक संसाधन उपलब्ध हैं भी या नहीं; बढ़ती जा रही जनसंख्या को रोक पाने अथवा कम कर पाने का कोई कारगर उपाय हमारे पास है भी या नहीं, इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ है जो महत्वपूर्ण है। हमने सात अरबवें बच्चे को एक बच्ची के रूप में परिभाषित कर समाज की दृष्टि बच्चियों के प्रति बदलने की चेष्टा की है। सम्पूर्ण विश्व में इस बात के संकेत देने के प्रयास किये गये कि विश्व जनमत बच्चियों के प्रति संवेदित और सकारात्मक सोच रखता है। यह प्रसन्नता की बात हो सकती है कि हाल के वर्षों में समाज में बच्चियों के प्रति अपना नजरिया बदलने का चलन प्रारम्भ सा हो गया है; एक प्रकार की औपचारिकता का निर्वाह करना शुरू सा हो गया है। बच्चियों के प्रति सकारात्मकता, संवेदनशीलता की औपचारिकता महज इसी कारण से परिलक्षित होती है क्योंकि हमने अभी भी बच्चियों को मारना बन्द नहीं किया है; गर्भ में उनकी हत्या करना नहीं छोड़ा है। विद्रूपता तो तब होती है कि मध्य प्रदेश सरकार की ओर से बेटी बचाओ अभियान के शुरू होने के अगले ही दिन एक बच्ची को जिन्दा दफनाये जाने की घटना सामने आती है।
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