20 नवंबर 2009

समीरलाल जी "पियो-पियो और जियो, जी भर के जियो"

आज कई दिन के बाद ब्लाग संसार को देखा और सुना। कई दिनों से मन भी नहीं लग रहा था और दूसरा कारण काम का बोझा भी आ गया था। आज इधर-उधर उल्टा-पुल्टा तो ब्लाग गुरू समीरलाल की पोस्ट देखी जो दारू और कविता से (शायद दारू नहीं कहेंगे, स्काच) ओतप्रोत थी। यह तो सभी को मालूम है कि समीर जी अपनी उड़नतश्तरी पर बैठ कर जब निकलते हैं तो अच्छे-अच्छों के विमान, जेट पीछे छूट जाते हैं।
इस बार भी यही हुआ। उनकी फोटो और फोटो के ऊपर बवाल???? अब बवाल क्या, न तो सरकार ने मचाया, न ही शराब बंदी करवाने वालों ने। बवाल मचाया हम ब्लागरों ने।
बवाल का कोई विशेष कारण होना भी नहीं चाहिए पर बना। देखा जाये तो समीर जी की कोई यही फोटो नहीं है शराब के साथ। विगत कई पोस्ट पर वे अपनी बातों और फोटों के द्वारा अपने स्काच प्रेम को दर्शा चुके हैं। तब अब बवाल क्यों?
अरे भाई हम सब कुछ न कुछ करते हैं पर कहने से डरते हैं। समीर जी ने इस बात को बेधड़क कह डाला, बस लोट गये साँप। इसे हम कुछ भी कहें पर संस्कृति का फर्क पड़ता है।
हम लोग अभी इस तरह का खुलापन उच्च वर्ग में देख रहे हैं। मध्य वर्ग शराब का शौकीन है पर सभी के सामने खुलकर नहीं। यही बात है जो अभी भी शराब को दबा-छिपा स्वीकारती है।
हम अपने शहर से ही इस बात को समझ सकते हैं। हमसे जो उम्र में बड़े हैं और जिनका हम सम्मान करते हैं उनके सामने शराब पीना तो दूर इस बात की भी चर्चा नहीं करते हैं कि हम शराब पीते हैं। ऐसा ही कुछ हमने अपने शहर के होटल में देखा है। यहाँ के रेस्टोरेंट में खाने के साथ आप शराब नहीं ले सकते। जबकि हमने इसके ठीक उलट नजारा मुम्बई में देखा। खाने की मेज, सभी तरह के लोग बैठे हैं और लगभग हर मेज पर शराब के गिलास।
यही अन्तर आज देखने को मिला समीर साहब की पोस्ट से। और आप देखिये कि कितनी आसानी से सभी कुछ दिखाने के बाद भी वे एक-दो कविताओं के माध्यम से आसानी से बचकर निकल भी गये। वाह रे समीर भाई!
पियो-पियो और जियो जी भर के जियो।

9 टिप्‍पणियां:

  1. बच कर निकले कहाँ, अभी तो बैठे हैं. :)

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  2. सही कहा आपने अपने यहाँ लोग छिपकर ज्यादा पीते है | और छिप छिप कर पीने वाले ज्यादा पियक्कड़ बन जाते है | इस पर विस्तार से कभी बाद में लिखूंगा |

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  3. हुई महंगी बहुत ही शराब
    के थोड़ी-थोड़ी पियो करो
    पियो लेकिन रखो हिसाब,
    के थोड़ी-थोड़ी पिया करो

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  4. मुझे तो गालिब साहब याद आ गये । " पीते थे मुफ्त की मय और सोचते थे ..रंग लायेगी अपनी फाकामस्ती एक दिन "

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  5. आखिर समर्थन कर ही दिया!
    चेला बनने की अर्जी तो लगा ही दी होगी!

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  6. मेरे एक मित्र जो पीने के शौक़ीन थे ,ने निम्नांकित लाइनों से अपनी आदत का समर्थन किया -
    "मई साधु से आलाप भी कर लेता हूँ ;
    मंदिर में कभी जाप भी कर लेता हूँ;
    मानव से कभी देवता न बन जाऊं ,
    यह सोच के कुछ पाप भी कर लेता हूँ "

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    सही कह रहे हैं आप, सोमरस का पान करने वाले हमारे देश में मदिरा को लेकर इतनी असहजता है कि सभ्यता पूर्वक कभी कभार इन्जॉय करने वाले के ऊपर भी "नाकार शराबी" का ठप्पा लगा दिया जाता है...

    आओ 'शाश्वत सत्य' को अंगीकार करें........प्रवीण शाह

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