04 नवंबर 2009

आस्था के बदले डर का सैलाब??

कल एक काम से अपने मित्र के घर जाना हुआ, रास्ते में एक मंदिर पड़ता है हनुमान जी का। मूर्ति का दक्षिण मुख होने के कारण मंदिर के प्रति लोगों की अपनर श्रृद्धा है। मंगलवार तथा शनिवार को बहुत अधिक भीड़ रहती है।
इसी तरह से भीड़ को भक्तिभाव में लीन 2 तारीख को गुरु पूर्णिमा के अवसर पर भी देखा। एक दो नहीं पूरे वर्ष में कई अवसर ऐसे आते हैं जब भक्तिभाव पूरे जोरों पर रहता है। देश के मंदिर तथा पवित्र स्थानों पर भयंकर भीड़ जमा होती है।
यह नजारा केवल हिन्दुओं के पर्व, त्यौहारों पर ही देखने को नहीं मिलता है वरन् सभी धर्मों के लोगों के साथ ऐसा है।
यह सब देखकर मन में हमेशा से एक विचार आता रहा है कि ये लोग किस कारण से भगवान की इतनी भक्ति करते दिखते हैं; पूजा? इबादत करने में लगे रहते हैं? क्या किसी बात का डर है? अपने प्रियजनों के बिछोह का डर है? कुछ पाने की लालसा है? क्या है.....?
भगवान जैसे किसी भी अस्तित्व के पीछे यदि इतनी श्रृद्धा है तो फिर उससे डरकर अपराध कम क्यों नहीं करता इंसान? हत्यायें हो ही रहीं हैं! बलात्कार हो ही रहे हैं! कन्याओं की हत्यायें हो ही रहीं हैं! आतंकवाद है ही! लूटमार है ही! शोषण हो ही रहा है! कालाबाजारी चल ही रही है! और तो और अब तो मंदिरों तक से भगवान की मूर्तियों को, जेवरों को चुराया जाने लगा है।
यदि यह सब चल ही रहा है तो इतनी पूजा, आराधना, इबादत किस लिये? तीर्थ, हज किस लिए? कहीं ये आस्था के बदले डर का सैलाब तो नहीं?

8 टिप्‍पणियां:

  1. आस्था से उपजा डर तो नहीं कहीं???

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  2. मन चंगा, तो बहती रहे कठौथी में गंगा ! मगर जब साल में ३६४ दिन झूठ, फरेब, चोरी चपाटी, ह्त्या बलात्कार का ही सहारा लिए रहो तो कभी तो एक दिन दिल करता है कि कार्तिक पूर्णिमा के बहाने ही सही गंगा में स्नान कर आये !

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  3. भला आदमी भय से जाता है और भला आदमी सुख समृद्धि और शांती की तलाश में जाता है शायद....।

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