28 जुलाई 2009

बहुत कुछ है विचार, चिंता करने को....सोचिये...

सच का सामना.....लगता है जैसे भारतीय परिवारों पर किसी भूत का साया आ गया हो? सबको चिन्ता हो गई है कि परिवार न टूटने पायें। अपने परिवार को बचा नहीं पा रहे हैं देश के परिवारों को बचाने की चिन्ता है।


अब क्या है उनका जिनका धर्म है धन कमाना। आज के जमाने में कहा भी गया है कि ‘‘बाप बड़ा न भैया, सबसे बड़ा रुपैया।’’ अब ऐसी हालत में कौन सुनेगा कि परिवार टूट जायेंगे?

एक और बात, जिनको लगता है कि इस कार्यक्रम से परिवार टूट जाने का डर है वे बतायें कि क्या अभी तक देश में परिवार नहीं टूट रहे थे? क्या अभी भी लोग अपने माता-पिता, बच्चों से अलग नहीं रह रहे थे? फिर अभी ही इतनी हाय तौबा क्यों?

दूसरी बात कि यदि परिवार की अवधारणा पुष्ट है तो क्या वह एक एंकर, एक कलाकार और एक पालीग्राफिक मशीन के सहारे ध्वस्त हो जायेगी?

तीसरी बात कि परिवार टूटने का खतरा उन लोगों को होना चाहिए जिन्होने इस कार्यक्रम में भाग लेना स्वीकारा है। देखने वालों को डर किस बात का है? यदि सवाल पूछा जा रहा है कि क्या आप अपनी बेटी की उम्र की लड़की से शारीरिक सम्बन्ध बनाने की इच्छा रखते हैं। इस सवाल के सच या झूठ में आपके परिवार के किस व्यक्ति का सच झूठ सामने आ रहा है?

यदि सवाल है कि क्या आप किसी गैर मर्द के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना सकतीं हैं बशर्ते आपके पति को पता न चले? इस सवाल के सच, झूठ से परेशान वे पति-पत्नी हों जो एक करोड़ के लिए वहाँ बैठे हैं। हमारे पेट में दर्द क्यों हो रहा है?

चौथी बात जिन्हें वाकई समाज के बिगड़ने-बनने की चिन्ता है वे इस बात की चिन्ता करें कि कैसे महिलाओं, लड़कियों, बच्चियों की इज्जत सुरक्षित रखी जा सके?
कैसे गर्भ में आने वाली बच्ची को धरती पर भी लाया जा सके?
कैसे बूढ़े माँ-बाप की सेवा की जा सके? ताकि कोई अपने माता-पिता के मरने की दुआ न करे।

चिन्ता करे इस बात की कि कैसे पति-पत्नी के रिश्ते में आत्मीयता, विश्वास कायम रखा जा सके?
चिन्ता हो इस बात की कि कैसे हम सोच में बदलाव लायें कि माँ, बहिन, बेटी, पत्नी के अलावा शेष महिलाओं को मादा न समझें, शारीरिक उपभोग की वस्तु न समझें।

हम चर्चा करें इस बात पर कि कैसे हर पेट को रोटी मिले, कैसे हर तन को कपड़ा मिले, कैसे हर परिवार को छत मिले?
हम चर्चा करें रात-दिन खटने वाले मजदूर वर्ग की। हम चर्चा करें समाज में गिरते भाईचारे की। हम चर्चा करें समाज में बढ़ते अपराध की। युवाओं में फैलती नशेबाजी और अन्य आपराधिक गतिविधियों की चिन्ता करें।

इन सबके बीच आती है वही बात कि उन्हें कमाना है रुपया और हमें कमाना है प्रचार। कैसे यह सब हो?

सीट पर बैठे कलाकार के रूप में हम स्वयं को क्यों देखते हैं? सवालों के अश्लील, खुले स्वरूप को हम स्वयं से पूछता हुआ क्यों देखते हैं? एंकर के द्वारा दी जाती चेतावनी को हम अपने लिए क्यों मानते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सब भी वही सोचते और करते हैं जिनको वे कलाकार या सेलीब्रिटी एक करोड़ के बहाने हमारे घर-घर तक पहुँचा रहे हैं? पति-पत्नी के बीच पहुँचा रहे हैं? हमारे बच्चों के बीच हमारी छिपी हुई असलियत को दिखा रहे हैं?

कहीं न कहीं कुछ तो है नहीं तो सामाजिक सरोकारों से जूझते देश में, जमीनी सच्चाइयों से लड़ते देश में, रोजी-रोटी की जंग में हमें सिर्फ सच का सामना ही क्यों दिखाई दे रहा है? सोचिए........

5 टिप्‍पणियां:

  1. सच ही कहा है आपने ....देखने वाले का क्या जा रहा है.

    जवाब देंहटाएं
  2. हमारे देश में हर मुद्दे पर हायतौबा मचाने का फैशन हो गया है। 'सच का सामना 'में सच यह है की सब कुछ प्रायोजित है और पैसे के लिए है और सच तो कड़वा होता ही है जिसे हम पचा नहीं पा रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं