चुनाव आयोग चुनावों की निष्पक्षता को लेकर बुरी तरह सजग है। प्रत्याशियों को भी परेशान किये है, मतदाताओं को भी परेशानी में डाले है, समर्थकों को भी परेशान कर रहा है (परेशानी इस हाल में कि इस बार जिस तरह से चुनाव हो रहे हैं वैसे चुनाव देखने की आदत तो छूट ही चुकी थी)
आयोग ने प्रत्याशियों की घोषणाओं तक पर ताला डाल रखा है। किसी प्रकार के प्रलोभन नहीं दिये जायेंगे, सभायें भी होंगीं तो आयोग से पूछकर। इस प्रकार की बंदिशों में अब प्रत्याशी कशमशा कर रह जा रहे हैं पर कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं।
इन्हीं सब बंदिशों, लगामों के बीच हमारे मन में कुछ सवाल उभरे जिनको लेकर चुनाव आयोग को लिख भेजा है पर वहाँ से अभी कोई जवाब नहीं आया है। सम्भव है कि अभी आये भी नहीं क्योंकि अभी वो चुनावों में ही व्यस्त है। किसे फुर्सत पड़ी है कि वो आम मतदाता के सवालों के जवाब दे? जब उन लोगों को फुर्सत नहीं है जो हम मतदाताओं के वोट पाकर ही सत्ता का सुख भोगते हैं तो औरों की क्या कहें?
सवाल मन में ये उठे कि प्रलोभनों की घोषणा करना मना है पर क्या राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा-पत्रों को प्रलोभन नहीं माना जाना चाहिए?
जो सुविधा जनता को अभी तक मुहैया नहीं थी और यदि अब हो रही है तो क्या यह चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है? (उदाहरण के लिए हमारे शहर में पहले बिजली आने-जाने का जो नियम था, अब उसमें बहुत अच्छा सुधार आ गया है। अब ज्यादातर बिजली रहती है। क्या यह प्रलोभन नहीं है? आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है?)
इसी तरह से इस बार ऐसी चर्चा है और हमारे उन मित्रों के माध्यम से पता भी चला है जो चुनाव में अपनी ड्यूटी का निर्वाह कर रहे हैं कि कोई व्यक्ति मतदान स्थल तक जाता है और मतदान की समूची प्रक्रिया से गुजरने के बाद चाहता है कि वो अपना वोट न दे तो मतदान अधिकारियों के पास रखे रजिस्टर में उसके विवरण के सामने लिख दिया जायेगा कि मतदान नहीं किया। यह उन लोगों के लिए अच्छा है जो तमाम व्यवस्था से नाराज होकर वोट नहीं देना चाहते। वे अपना मत भी नहीं देंगे और कोई दूसरा उनके मत का दुरुपयोग भी नहीं कर पायेगा। पर क्या इस व्यवस्था से मतदान की गोपनीयता भंग नहीं हो रहीं है?
हमारा मत किसे गया किसे नहीं, हमने मतदान किया या नहीं ये नितांत गोपनीय मामला है पर वो तो इस व्यवस्था से गोपनीय तो नहीं रहा। यदि आयोग को नकारात्मक वोट जैसी व्यवस्था ही करनी थी तो क्या वोटिंग मशीन में ही एक अतिरिक्त बटन की व्यवस्था नहीं करवाई जा सकती थी? वर्तमान व्यवस्था क्या मतदाता की गोतनीयता को उजागर नहीं करती है?
इसी तरह इस बार बहुत सालों के बाद माध्यमिक स्तर के अध्यापकों को भी चुनाव ड्यूटी में लगाया गया है। अधिसंख्यक अध्यापक किसी न किसी राजनैतिक दल से जुड़े हैं और बहुत तो ऐसे हैं जो किसी न किसी राजनैतिक दल में जिम्मेवार पदों पर हैं। क्या इस तरह के लोगों को पीठासीन अधिकारी बनाना या फिर मतदान कर्मचारी बनाना चुनाव को प्रभावित नहीं करेगा?
इस तरह के कुछ सवालों को आयोग के सामने रखा है। कुछ दूसरे प्रकार के सवालों को भी रखा है जिन पर चर्चा कभी बाद में, इन सवालों को पूर्व आयुक्त टी0एन0शेषन के सामने भी रखा था पर वहाँ से भी कोई जवाब नहीं आया था। क्या इन सवालों का जवाब हमें या अन्य दूसरे जागरूक मतदाताओं को मिलेगा?
चुनावी चकल्लस-देश के विकास के लिए सब खड़े हैं,
हम हैं सबसे बेहतर इसी पर अड़े हैं,
दूसरों को कोसने में कोई कसर नहीं,
भूल जाते हैं कि वे खुद कीचड़ में खड़े हैं।
16 अप्रैल 2009
कुछ सवालों के जवाब जरूरी हैं.....
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें