14 अप्रैल 2009

दो सौवीं पोस्ट और जावेद भाई की नज़्म-पढ़ें भी, सुने भी

अपने ब्लाग के ग्यारह माह से कुछ ऊपर के समय में बहुत कुछ देखा, बहुत कुछ समझा। यह हमारी दो सौवीं पोस्ट है। क्या देखा और क्या समझा यह तो बाद में अभी अपनी दो सौवीं पोस्ट पर आपके सामने फिर जावेद भाई की एक प्रस्तुति, आशा है कि पिछली बार की तरह आपको ये भी बहुत ही पसंद आयेगी। वर्तमान संदर्भों में यह नज़्म विशेष महत्व रखती है।
चुनावी चकल्लस से आपको आज भी दूर रखेंगे, अगली पोस्ट से फिर...............।
सुनिये भी और पढ़िये भी, जावेद भाई की ये नज़्म.....

उनसे नहीं कहो कुछ, खुद एक हो जागो,
कि सत्ता चला रहे वो, जमुहाइयों के साथ।

तुम शेर हो वतन के, क्यों माँद में घुसे हो,
दुश्मन को चीर डालो, अँगड़ाइयों के साथ।

गालिब मेरे चचा थे, तुलसी थे मेरे बाबा,
मैं शेर भी पढूँगा, चैपाइयों के साथ।

जो हाथ जोड़ते थे, अब उनके हाथ जोड़ो,
पहले रखा दी कुर्सी, ऊँचाइयों के साथ।

किसका मनायें मातम, किसकी मनायें खुशियाँ,
उस्ताद सो गये हैं, शहनाइयों के साथ।

मंदिर में जन्म अपना, मस्जिद में अपनी पूजा,
गिरजा में दुआ माँगें, ईसाइयों के साथ।

3 टिप्‍पणियां:

  1. गालिब मेरे चचा थे, तुलसी थे मेरे बाबा,
    मैं शेर भी पढूँगा, चैपाइयों के साथ।
    बेहतरीन....लाजवाब प्रस्तुति...आभार आपका...
    नीरज

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