चिदम्बरम, जिन्दल और अब आडवानी....यह किसी चुनावी कार्यक्रम के लिए तिकड़ी जरूर न हो पर इस तिकड़ी में कुछ न कुछ साम्य अवश्य है। तीनों अपने-अपने चुनावी कार्यक्रमों में व्यस्त हैं और इस व्यस्तता के मध्य वे आम आदमी की नाराजगी का भी सामना करते हैं। हालांकि इस नाराजगी में इन तीनों में से कोई सीधे-सीधे सम्पर्क में नहीं आता है।
इनके ऊपर जिस प्रकार से जूते-चप्पल का वार किया गया उससे यह तो साफ है कि आम आदमी अपने गुस्से को काबू न कर उसे अलोकतांत्रिक तरीके से सामने ला रहा है। अब नेताओं को, राजनैतिक दलों को ये बात समझ में आ रही है कि क्या लोकतांत्रिक है और क्या अलोकतांत्रिक है? कहने को कुछ भी कहा जाये पर यह तो सही है कि इस प्रकार की घटनाएँ कदापि क्षम्य नहीं होनी चाहिए और सभी लोगों को एक स्वर में इनका विरोध करना चाहिए।
जनता यह भली-भांति जानती है कि अब तक उसको मात्र यह दिलासा देकर भरमाया ही जाता रहा है कि लोकतन्त्र में बहुत शक्ति है, मतदाता बहुत ताकतवर होता है, वह जब चाहे तब सत्ता परिवर्तन करदे। अब राजनीति शास्त्र का यह सूत्रवाक्य बहुत ही घिस-पिट गया है कि जनता का शासन, जनता के द्वारा, जनता के लिए।
वह समझता है कि मतदाता के लिए लोकतन्त्र केवल मुहर लगाने भर तक - अब केवल मशीन की बटन दबाने भर तक - ही है, इसके बाद वही होता है जो राजनेता चाहते हैं, चुने गये लोग चाहते हैं, पार्टी के आलाकमान चाहते हैं। राजनीति में विगत कुछ वर्षों में ऐसे बहुत से उदाहरण सामने आये हैं जबकि सरकार गठन में, सत्ता परिवर्तन में, उच्च नेतृत्व परिवर्तन में आम मतदाता की कोई भी भूमिका नहीं रही है।
आडवानी के केस में पार्टी को सोचने और चिन्तन की आवश्यकता है। किसी दल का कार्यकर्ता ही निराशा-हताशा-कुठा में अपने ही दल के शीर्ष नेता पर इस प्रकार से हमला बोल दे तो स्थिति सोचनीय कही जायेगी।
आज जिस प्रकार से दलबदल की राजनीति ने अपने ही दल में निष्ठावान कार्यकर्ताओं को हाशिए पर खड़ा कर दिया है, जिस प्रकार से धन-बल और बाहु-बल ने एकदम से प्रत्येक दल में पैठ बना ली है वह अवश्य ही किसी भी दल के समर्पित कार्यकर्ता को निराश करेगी।
केवल भाजपा को ही नहीं प्रत्येक उस दल को विचार करने पर मजबूर किया होगा जो अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को भुलाकर दूसरे दलों से आये प्रभुत्वपूर्ण लोगों को या फिर एकाएक अपने ही दल में धन-बल से, बाहु-बल से सम्पन्न लोगों को बढ़ावा देने में लगे हैं। चिदम्बरम, जिन्दल, आडवानी तो केवल एक उदाहरण के रूप में सामने रखे जा सकते हैं, यदि इसी प्रकार अपने कार्यकर्ताओं का, आम आदमी का शोषण होता रहा, उसकी आकांक्षाओं का गला घोंटा जाता रहा तो यकीनन एक दिन ऐसा आयेगा जब सभाओं में, प्रेस-वार्ताओं में या अन्य ऐसी जगहो पर जहाँ कार्यकर्ता तथा आम जनता जमा हो वहाँ जूते, चप्पल आदि पहनना वर्जित कर दिया जाये।
चुनावी चकल्लस-जूते की महिमा भली, अब तक थे अनजान,
बिना लाइसेंस का मिल गया एक अस्त्र महान,
पैरों की रक्षा करो घूम लो चारों धाम, संकट आता जब दिखे करदो घमासान।
सबसे बड़ी समानता तो यही है कि अब तीनों जूतान्वित हो चुके हैं. इस लिहाज से तो तीनों भाई-भाई हो चुके हैं. उधर बक्सर में एक दद्दन पहलवान जी भी जनसभा के दौरान जूतांवित हुए. उन्हें किसी पत्रकार या पार्टी कार्यकर्ता ने नहीं, ख़ुद जनता जनार्दन ने जूतान्वित किया. इससे बड़े सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है!
जवाब देंहटाएंलेकिन आपने इसे अलोकतांत्रिक कह कर वैसे लोकतंत्र का मज़ाक उड़ाया है, जैसे एक शहंशाह ने ताजमहल बनवा कर हम ग़रीबों की मुहब्बत का मज़ाक उड़ाया है. हम इस बात से बहुत दुखी हूं.
टमाटर, अंडे महंगे हैं इसलिए जूते व चप्पल ही सही है। जूते व चप्पल सहज उपलब्ध भी है। अंडे या टमाटर फेंकने हो और लेकर नहीं गए हो तो पहले बाहर जाकर ये लाने पड़ेंगे जबकि जूता व चप्पल खुद का फेंक या दें या फिर पड़ोसी का, आसान है इसकी उपलब्धता।
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