साहित्य समाज का दर्पण होता है ऐसा पढ़ रखा है। इण्टरमीडिएट स्तर की पढ़ाई तक तो इस विषय पर कई बार निबन्ध भी लिखा जा चुका था। तब न तो साहित्य की इतनी समझ थी (हालांकि समझ तो अभी भी नहीं आ पायी है बस.....) और अपने पाठ्यक्रम को पूरा करने, अच्छे अंक लाने के चक्कर में साहित्य की ओर ध्यान दे पाते थे, बस निबन्ध लिखा और किस्सा खतम। फिर भी विचार (कभी-कभी) करते थे कि साहित्य समाज का दर्पण कैसे?
अब जबकि साहित्य से अपने को जोड़ लिया है, थोड़ी बहुत गतिविधियाँ साहित्यिक क्षेत्र में भी चलने लगीं हैं, इसका अर्थ समझने का प्रयास जारी है। आज जिस तरह का साहित्य लिखा जा रहा है वह सही है या गलत ये तो पाठक अच्छी तरह से बता सकते हैं किन्तु वह समाज का सही-सही प्रतिनिधित्व करता नहीं दिखता है। साहित्य के द्वारा समाज के चित्रण की परम्परा सी समाप्त होती दिखती है (अधिकांश साहित्य प्रेमी इस बात से सहमत नहीं होंगे)।
साहित्य के द्वारा वर्तमान में समाज की समस्या को उस तरह से नहीं दिखाया जा रहा है जिस तरह से साहित्य से अपेक्षित रहा करता है। वर्तमान में साहित्य के द्वारा यदि किसी समस्या को या कहें कि किसी मुद्दे को सर्वाधिक स्वीकार्यता प्राप्त है तो वह है स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, स्त्री-पुरुष के विवाहेत्तर सम्बन्ध, अवैध सम्बन्ध, यौन चित्रण आदि-आदि। इन विषयों की कहानियों को आसानी से राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में देखा जा सकता है इसके साथ ही से विषय आसानी से उपन्यासों को किसी न किसी पुरस्कार से सम्मानित करवा दे रहे हैं।
क्या वाकई समाज में अब यही विषय शेष रह गये हैं? क्या यही समाज है जिसका प्रतिबिम्ब साहित्य दिखा रहा है?
देखा जाये तो समाज को दृष्टिगत रख कर साहित्य लेखन की प्रक्रिया अब लगभग समाप्त सी हो चुकी है। अब लेखक प्रकाशकों के लिए लिखता है, प्रकाशकों के बताये विषय पर लिखता है। प्रकाशक बड़े-बड़े पुस्तकालयों, अधिक धनराशि प्राप्ति वाले आदेशों, पुरस्कार की जुगाड़ में पुस्तकों का प्रकाशन करता है। आम पाठकों के लिए, साहित्य प्रेमियों के लिए अब पुस्तकों का प्रकाशन बन्द ही है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण पुस्तकों का बहुत अधिक मूल्य का होना है।
आज भी जब हिन्दी साहित्य की चर्चा की जाती है तो हमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द, जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी, पन्त, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी, अज्ञेय आदि पुराने नाम ही याद आते हैं; इनकी कृतियाँ ही स्मरणीय हैं। क्यों नहीं कोई नया लेखक अपनी किसी उत्कृष्ट कृति के साथ हमारे मन-मष्तिष्क में स्थापित नहीं हो पाता है?
इस विषय पर साहित्य प्रेमियों को गम्भीरता से विचार करना होगा और समझना होगा कि आज जिस साहित्य की रचना की जा रही है क्या वह वाकई समाज का दर्पण है? क्या वाकई समाज को ध्यान में रखकर साहित्य की रचना की जा रही है?
अच्छा लिखा है आपने....हम आप से सहमत है
जवाब देंहटाएंआप से सहमत है.
जवाब देंहटाएंनिरन्तर: उदीयमान और अच्छे कलमकार ब्लागरो के बारे में आज चिठ्ठा चर्चा
सत्यवचन।
जवाब देंहटाएंऐसा नही है,आज भी स्तरीय लिखने वालों की कमी नही.जिस प्रकार के लेखन का आपने जिक्र किया है,प्रेमचंद आदि के युग में भी ऐसे असंख्य लेखक थे और आज भी हैं......हाँ, शोभा डे या खुशवंत सिंह जैसे लेखक मिडिया का ध्यान अधिक खींचते हैं ,लेकिन इसका यह मतलब नही कि स्त्री और लिप्साओं पर केंद्रित रचनाएँ ही कालजयी होंगी.......स्तरीय रचनाएँ ही साहित्य का रत्न बनेंगी.
जवाब देंहटाएंकिन्ही विद्वजन से संपर्क कीजिये,वे आपको अच्छे स्तरीय साहित्य और साहित्यकार की रचनाओं की जानकारी देंगे.अन्यथा न लीजियेगा,कुछ वर्ष पहले मेरे विचार भी कुछ आपके तरह ही थे......पर जब मैंने पढ़ना शुरू किया तो अपार भण्डार मिला.