इधर एक सेमीनार का आयोजन करवाने के कारण ब्लॉग पर आने में विलंब हो रहा है, कई मित्रों के मेल आने से पता लगा कि हमारे ब्लॉग को भी पढ़ा जाता है। अन्यथा अभी तक तो टिप्पणी को ही पठनीयता का पैमाना समझते रहे...............(टिप्पणियों पर कई लोगों कि राय ब्लॉग पर देखी है उसी के आधार पर). सेमीनार "पर्यावरण और मानव समाज" Environment and Human Society विषय पर है.
मकसद सेमीनार के बारे में न बता कर उस खास मुद्दे की तरफ़ ध्यान लाना था जिसे हम जानबूझ कर भी अनजाना बना देते हैं. जी हाँ "पर्यावरण" कुछ इसी तरह का शब्द है. जब तक हमें भाषण देने को मिलेगा तब तक पर्यावरण संरक्षण की बात करेंगे और जैसे ही मौका मिलेगा पर्यावरण के लिए संकट पैदा करने लगेंगे. ये मानवीय प्रवृति है जो आसानी से नहीं छूटती और विशेष रूप से हम भारतीयों की.
अपनी मूल परिवृति न त्यागने के कारण ही हम भारतीय हैं........वही आदर देने का भाव, वही अहिंसात्मक होने का भाव, वही सबसे प्रेम करने का भाव (अब तो आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ.........औरत भी.....वाला प्यार भी इस देश में होने लगा है) इसी मूल परिवृति पर एक व्यंग्य बहुत पहले सुना था अपने बूढे-पुराने लोगों से..............सुना रहे हैं अन्यथा न लीजियेगा..........जिसे बुरा लगे क्षमा करियेगा।
देश आजाद होने के बाद विदेश से (कोई भी देश मान लीजिये) वहां के प्रमुख आए। दिल्ली में रुके और सुबह-सुबह टहलने को निकले. देखें कि बहुत से लोग सुबह-सुबह अपने-अपने पात्र लिए सड़क के किनारे, दूर मैदानों में बैठे हैं..........इस स्थिति को देख हमारे देश की दशा पर उन्हों ने साथ चल रहे भारत देश के प्रधानमंत्री से कहा "ये सब क्या है? हमारे देश में तो ये सब नहीं होता है. बहुत गंदा देश है आपका."
प्रधानमंत्री साहब को बहुत बुरा लगा पर क्या करते ये तो आज भी इस देश के लोगों की मूल प्रवृति बनी है मैदानों में बैठने की, पटरियों के किनारे बैठने की............ रह गए मन मसोस कर..........
कुछ समय बाद हमारे प्रधानमंत्री जी को भी मौका लगा उसी देश में जाने का. अब सोचा कि लगे हाथ इनके देश का भी मुआयना भी कर लिया जाए. चल दिए उस देश के प्रमुख को लेकर सुबह-सुबह टहलने. टहलते-टहलते कई किलोमीटर निकल गए लेकिन कोई भी सड़क के किनारे, पटरियों के किनारे, दूर मैदान में बैठे नजर नहीं आया. थकान भी हो रही थी पर देश की इज्जत का सवाल था............किसी न किसी को तो सुबह-सुबह बैठे हुए खोजना ही था। बहुत चलने के बाद बहुत दूर खेत में एक आदमी बैठा दिखाई दिया. हमारे प्रधानमंत्री जी बोले "देखा आपके देश में भी ये होता है."
उस देश के प्रमुख को बहुत बुरा लगा, उसने लौटकर अपने ऑफिस में उस व्यक्ति को बुला भेजा। जब वो व्यक्ति आया तो स्थिति हमारे प्रधानमंत्री जी की ही बुरी हो गई क्योंकि वो आदमी हमारे देश के दूतावास का ही कर्मचारी (यानी कि भारतीय) ही निकला.
इसी को कहते हैं मूल प्रवृति, जो कहीं भी, किसी रूप में नहीं बदलती है. इसी के चलते हमें या हमारी आने वाली पीढी को कितने भी कष्ट क्यों न सहने पड़ें, हम न सुधरेंगे और न सुधरने का प्रयास करेंगे. पर्यावरण के लिए संकट पैदा करते हैं, करते रहेंगे.
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