"मैं नहीं जानता कि दिन क्या है?
मैं नहीं जानता कि रात क्या है?
मैं ये भी नहीं जानता कि क्या सुबह, क्या शाम?
मैं नहीं जानता रात के तारे-चांदनी?
मैंने नहीं देखी सुबह की ओस?
मैं नहीं जान सका कब उगा सूरज गुलाबी रंग में
और कब ढल गया फ़िर वो गुलाबी रंग में?
मैं नहीं जानता......??????????"
नहीं जनाब ये कोई कविता नहीं..........न ही किसी कवि की कल्पना है. ये हकीकत है आज के भारत देश में टहलते उन बच्चों की जो अपने बचपन को भुला कर किसी न किसी रूप में स्वयं को मजदूर की श्रेणी में शामिल कर दे रहे हैं. सुबह की टहल के बाद किसी जगह पर चाय पीने के लिए रुके आपके कदमों की आहात के नीचे किसी बालक का बचपन दबा होता है. शाम को दिन भर की थकान मिटाने के लिए किसी फास्ट-फ़ूड की दूकान पर खड़े होकर चटपटी जायकेदार चीजों के जूठे बर्तनों के नीचे किसी का बचपन सिसक रहा होता है.
क्या यही भारत का भविष्य है????? क्या यही हमारे भावी-भाग्य-विधाता हैं?????? सोचिये. बाल मजदूरों की बढ़ती संख्या से समाज को चिंतित होना चाहिए पर ऐसा नहीं हो रहा है. सबको स्वार्थ-पूर्ति में रत देखकर लगता है कि सरकार के क़ानून बनाने से पहले हमें ख़ुद एक तरह के क़ानून को अमल में लाना होगा. हमें अपने कामों के लिए बच्चों को मजदूर के रूप में तलाश करने की आदत को त्यागना होगा. घर के किसी भी काम के लिए काम वाली बाई के साथ उसके बच्चों से काम लेने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा. और भी बहुत है जो हम आसानी से कर सकते हैं और वो भी बिना किसी परेशानी के.
चलिए हम सब समाज सेवा का बीडा न उठाएं, किसी गरीब के बच्चों को पढ़ने-लिखाने या उनको जिम्मेवार नागरिक बनाने की कसम न खाएं, किसी बाल-मजदूर को मुक्त करने का जोखिम न लें पर क्या इतना भी करना हमारे लिए मुश्किल है कि हम ख़ुद किसी बच्चे से काम न लें?
ये तो मुश्किल नहीं बस मन में संकल्प लें और जुट जाएँ कि आज नहीं तो कल हमारा देश, समाज बाल-मजदूर के अभिशाप से मुक्त होगा। तब हम बड़ी ही शान से कह सकेंगे.............."ये बच्चे हिन्दुस्तान के हैं, ये बच्चे अपनी शान के हैं..................................."
vicharniya prashan
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