23 जुलाई 2008

राजनाति ये तो नहीं

उधर संसद में सभी सांसद विश्वास प्रस्ताव पर बह्साबासी कर रहे थे और इधर हम सब अपना-अपना कयास लगा रहे थे की अब ये होगा, तब ये होगा. होना क्या था ये सब को दिख रहा था, हाँ सरकार के गिरने की गुन्जाईस बस एक बाल के समान बारीक सी दिख रही थी. इसी बारीक़ गुंजाईश में लेफ्ट ने अपना वो कार्ड खेला जिसके विरुद्ध वो हमेशा रहता है. वो था मायावती को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे लाना. मायावती को आगे लाना ग़लत या लेफ्ट की नीतियों के विरुद्ध नहीं था विरुद्ध था तो जातिगत राजनीति का विरोध करने के बाद भी जाति की राजनीति करने वाली मायावती को प्रधानमंत्री के लिए प्रमोट करना.

अब सरकाए के पक्ष में मतदान हुआ, मायावती के लिए कुछ कहने को नहीं बचा तो उन्हों ने वही पुराना राग अलापा कि दलित की बेटी को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। वह री राजनीति, क्या यही सत्य है? एक बार को मान लिया जाए कि सरकार गिर जाती तो भी क्या इस स्थिति में मायावती प्रधानमंत्री बाब पातीं? बिल्कुल नहीं, क्योंकि सरकार गिराने में शामिल थी बी जे पी, बी जे पी क्या तब मायावती या लेफ्ट को समर्थन देती?

बहरहाल ये सब अब एक सवाल हैं. सत्यता ये है कि मनमोहन की तान पर सारे मुग्ध हुए और सरकार बच गई. हाँ जातिगत राजनीति करने वालों को ध्यान रखना होगा कि इस भारत देश में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तथा अन्य ऊँचे पदों पर दलित, मुस्लिम, महिलाएं आदि बहुत पहले पहुँच चुके हैं.

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