आधुनिकता में दौड़ते-दौड़ते हम कब अपने बच्चों को उनके बचपन से दूर ले गए हमें पता ही नहीं चला. अब आप कहेंगे कि इसमें आधुनिकता जैसी कोई बात कहाँ है? बिल्कुल है जनाब, बस आप गौर से देखिये. आधुनिकता इस मायने में कि हम अपने बच्चों को फिल्मों, टी0 वी0 की तरह का बच्चा बना देना चाहते हैं. हमें लगता है कि हमारा बच्चा तुम्हारे बच्चे से कमजोर कैसे?(बिल्कुल वही अंदाज़, तुम्हारी शर्ट मेरी शर्ट से सफ़ेद कैसे?)अब जनाब बच्चा न हो गया कोई प्रोडक्ट हो गया, जब जैसे चाह वैसे उसका उपयोग कर डाला. शुरुआत एकदम छोटे से ही होती है. घर में मित्र या महमान आने भर की देर है कि हम चालू हो जाते हैं अपनी जादूगीरी दिखने के लिए. "चलो बेटा अंकल को पोयम(कविता नहीं) सुनाओ, चलो बेटा पूरी टेबल(पहाड़े कहना कठिन है) सुना दो. यहाँ तक भी होता तो गनीमत थी, हमारे कदम बढ़ जाते हैं और आगे को. मेरा बेटा फलां फिल्मी एक्टर की नक़ल कर लेता है, किसी के डांस की कॉपी कर लेता है. इसके बाद शुरू होता है बच्चे का फिल्मी एक्टर बनना. डांस, डायलोग का सिलसिला तब तक चलता है जब तक कि बच्चा न रोने लगे या फ़िर महमान ही उठ कर न चल दे. आख़िर उसके मन में भी तो कीडा कुलबुलाने लगा है अपने बच्चे को एक्स्ट्रा बनने का और उसके घर पर आने वालों के लिए मनोरंजन करने का.इसके अलावा परीक्षाओं में ज्यादा से ज्यादा नंबर लेन का दवाब, मेरिट में आने का दवाब. अब कुछ दवाब हमारे कथित विकासवादियों ने भी बढ़ा दिया है, टी वी की दुनिया में रियलिटी शो का व्यापार खड़ा करके. बच्चे तो बच्चे उनके माँ-बाप तक नाचने गाने में लगे हैं कि पता नहीं कब मौका लगे और बच्चा तो मंच पर नाचे ही कुछ एंकर(जावेद जाफरी टाईप) माँ-बाप को भी नचवा देते हैं. अब इससे बच्चों का बचपन तो कहीं गम हो गया है, दवाब के चलते बच्चों की जिंदगी भी गुम हो रही है. आए दिन बच्चों की आत्महत्याओं की ह्रदय-विदारक खबरें इसी का दुष्परिणाम है. क्या हम बच्चों को उनका नैसर्गिक जीवन जीने देंगे?
सहमत हूँ..पता नहीं कैसी अँधी दौड़ चली है..कितना कुछ कर किस अनजान की चाह में.
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