वाह भाई वाह! क्या कहने! एक लम्बी-चौडी बहस के बाद, जद्दोजहद के बाद मीडिया ने आरुषि हत्याकांड की दम निकल ही ली। एक मासूम सी बच्ची जो अपनी जिंदगी के हसीं लम्हों को देखने के पहले ही खामोश हो गई, वहीँ मीडिया अपनी पूरी ताकत लगा कर ऐसे प्रसारण करता रहा जैसे कि वो सारे घटनाक्रम की तफ्तीश कर रहा हो। यहाँ किसी तरह की भावनात्मकता का भी ख्याल नहीं रखा गया, किसी तरह की सामाजिकता का ख्याल भी नहीं रखा गया। प्रत्येक चैनल इस बात को साबित करने में लगा था कि वो जो दिखा रहा है वही सत्य है बाकि सारे के सारे लोग झूठे हैं।
इसके अतिरिक्त बेशर्मी तो इस बात की है कि हमारे भारतीय समाज में एक विशेषता है कि यहाँ मरणोपरांत किसी भी व्यक्ति के दोषों की चर्चा नहीं की जाती है, उसके चरित्र को लेकर किसी भी तरह के सवाल नहीं खड़े किए जाते हैं, पर यहाँ तो ये भी हुआ। मासूम सी बच्ची के शारीरिक संबंधों तक की चर्चा इस प्रकार खुले आम हो रही थी मानो कि सब कुछ मीडिया की नज़रों के सामने होता रहा हो। इस सब से भी लोगों को रस नही आ रहा था तो हमारा आधुनिक बोलीवुड सबसे ऊपर जाकर आरुषि हत्याकांड पर फ़िल्म तक बनाने की सोचने लगा।
सवाल ये नहीं कि मीडिया ने क्या दिखाया? मीडिया को क्या दिखाना चाहिए था? मीडिया ने सही किया या ग़लत? ये सारे सवाल मीडिया कर्मियों की रोजी-रोटी से जुड़े हैं। उन्हें अपने आपको सुर्खियों में बने रहने के लिए इस तरह के हथियारों का प्रयोग करना होता है, पर असली सवाल इस बात का है कि क्या समाज में सिर्फ़ मीडिया ही बाकी रह गया है? मीडिया के क्षेत्र में नौकरी करने वाले क्या इन्सान नहीं हैं? मीडिया की सारी कवायद इस तरह के घटनाक्रम पर आकर ही क्यों रुक जाती है जहाँ किसी न किसी रूप में सस्पेंस हो, किसी न किसी रूप में सेक्स की खुशबू छिपी हो? क्यों मीडिया समाज को दिशा देने वाले लोगों को इतना अधिक सामने नहीं लाती है?
यह तर्क या कुतर्क सही हो सकता है कि मीडिया वही दिखा रहा है जो आदमी देखना चाह रहा है, तो क्या ऐसे में समाचारों की गरिमा को समाप्त कर दिया जाए? क्या मीडिया मी आड़ में मानवता को समाप्त कर दिया जाए? क्या आपसी संबंधों की गर्माहट को व्यावसायिकता की आड़ में समाप्त कर दिया जाए? सवाल बहुत हैं पर उसके जवाब भी उतने ही हैं। यदि इस ब्लॉग को या इस पोस्ट को किसी भी रूप में कोई भी मीडिया से जुडा व्यक्ति पढ़े तो इन सवालों का जवाब अपने भीतर, अपने परिवार के भीतर, अपने रिश्तों के भीतर, अपनी मानवीयता के भीतर जरूर खोजे। तब पता चलेगा कि लोग मीडिया से क्या चाह रहे हैं और मीडिया उन्हें क्या दे रहा है?
अफसोसजनक.
जवाब देंहटाएंसामयिक और सटीक लेखन। बस यही तो रोना है।
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