मंडल कमीशन के हंगामेदार प्रदर्शन के बाद एक बार फ़िर आरक्षण के विवाद ने अपना सिर उठाया है। आरक्षण किसे हो? कितना हो? कैसा हो? इस पर हमेशा से एक व्यापक बहस की जरूरत रही है। शिक्षा से लेकर नौकरी तक आरक्षण का विवाद पसरा हुआ है। हाल-फिलहाल की स्थिति को देख कर लगता भी नहीं है कि ये विवाद इतने आसानी से निपटेगा।
आरक्षण को लेकर विवादों का रूप अलग -अलग है। कहीं एडमीशन को लेकर विवाद है तो कहीं ख़ुद को जातिगत आरक्षण देने का विवाद है। वर्तमान में राजस्थान में गुर्जर वर्ग का विवाद इसी का उदाहरण है। आरक्षण से मिलने वाले लाभों को देख कर कोई भी स्वयं को आरक्षित कोटे में लाना चाहेगा। ठीक भी है सभी को अपने-अपने स्तर पर लाभ लेने की चाह होती है पर क्या कभी इस बात पर विचार होता है कि लाभ संवैधानिक हों? शायद नहीं। न तो हम लोग, जो लाभ लेने की चाह रखते हैं और न वे लोग, जो लाभ दिलवा पाने सी स्थिति में होते हैं, इस ओर विचार करते हैं।
गुर्जरों का आरक्षण का लाभ लेने को होता प्रदर्शन तथा प्रदर्शनों में मरते लोगों के ऊपर होती राजनीति से किसी का भला होता नहीं दिखता। राजनेताओं ने भी इस मुद्दे पर अपनी-अपनी रोटियां सेकनी शुरू कर दी हैं। अच्छा होता कि सभी राजनीतिक दल आपस में बैठ कर संवैधानिक रूप से इस समस्या का हल निकलते। गुर्जरों की राजस्थान में सामाजिक स्थिति, आर्थक स्थिति आदि को देख कर उनको आरक्षण पर विचार किया जाता।
राजनेताओं के अलावा ख़ुद गुर्जर समुदाय के नेताओं को भी चाहिए था कि वे भी इस बात पर विचार करते कि क्या उनकी स्थिति वास्तव में इस लायक है कि उनको आरक्षण का लाभ दिया जाए या ये सारी कवायद मात्र नौकरी, चुनाव आदि के लिए हो रही है। सिर्फ़ सरकारों का ही नहीं हमारा भी कुछ फ़र्ज़ है कि हम राष्ट्र निर्माण में अपना सकारात्मक योगदान दे।
अस्थाई इलाज को स्थाई कर देने का नतीजा है। यह वह दवा है जो कुछ लोगों के दर्द का निवारण करती है और कुछ को और दर्द देती है। इस दवा को बदलने के बारे में क्यों नहीं सोचते?
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