लम्बे समय तक देश की सत्ता सञ्चालन
के बाद बुरी तरह से पराजित होकर विपक्ष में बैठे कांग्रेस की नकारात्मक सक्रियता
से और उनके नेताओं की अनर्गल बयानबाजी से हताशा और निराशा ही स्पष्ट हो रही है. भाजपा
के सत्ता में आने के बाद अपेक्षा की जा रही थी कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के
द्वारा जिम्मेवार विपक्ष की भूमिका का निर्वहन किया जायेगा किन्तु लगभग दो वर्ष के
शासनकाल में ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला. सदन के भीतर और सदन के बाहर उसका और उसके
नेताओं का व्यवहार किसी नौसिखिये राजनीतिज्ञ की भांति नजर आया है. सदन के भीतर
अनेकानेक बिलों, अध्यादेशों, कानूनों आदि को लेकर कांग्रेस की नीति को समस्त
देशवासियों ने देखा-सुना है. जिस तरह से अपनी अप्रासंगिक माँगों को मनवाने के लिए
कांग्रेस द्वारा संसद को बंधक सा बनाये रखा गया था, उससे लगने लगा था कि उसका
मुख्य कार्य विपक्ष की भूमिका निभाने से ज्यादा सरकार के काम में अड़ंगे लगाना है,
सरकार को देश के सामने गलत ठहराना है, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जनता की
नज़रों में गिराना है.
कांग्रेस द्वारा ऐसा सिर्फ सदन के
अन्दर ही नहीं किया गया वरन सदन के बाहर भी उसके नेताओं द्वारा, वरिष्ठ नेताओं
द्वारा अनर्गल रूप से सरकार-विरोधी कार्यों को, बयानों को अंजाम दिया गया. अख़लाक़
की मौत, रोहित की आत्महत्या, पाकिस्तान टीवी चैनल पर सरकार गिराए जाने की बात
करना, अफज़ल को लेकर की गई बयानबाजी, जाट आन्दोलन में संदिग्ध भूमिका, जेएनयू
प्रकरण, उत्तराखंड में शक्तिमान घोड़े की टांग टूटने की घटना को तूल देना आदि-आदि
ऐसे मुद्दे हैं जो स्पष्ट रूप से देश की जनता को बरगलाने के लिए उठाये गए. नकारात्मकता
भरे, अप्रासंगिकता से भरे ऐसे मामलों को उठाना कहीं न कहीं कांग्रेस की मानसिक
हताशा को ही परिलक्षित करता है. इसी हताशा और सरकार को बदनाम करने की नीयत के चलते
जहाँ एक तरफ एक कांग्रेसी नेता द्वारा बड़बोलेपन की हद तक जाकर राष्ट्रद्रोह के
आरोपी कन्हैया को भगत सिंह के समान बताया बताया गया वहीं दूसरी तरफ शहीदी दिवस पर
भगत सिंह को शहीद बताते हुए वीर सावरकर को गद्दार बताया गया. सरकार विरोध में अथवा
एक व्यक्ति नरेन्द्र मोदी के विरोध में ये दल और इस दल के नेता इतने भी नीचे दिर
सकते हैं, शायद ही किसी ने सोचा होगा.
जेएनयू प्रकरण में जिस तरह से
कांग्रेस ने अपने आपको देशविरोधी नारे लगाने वालों के साथ खड़ा किया, वो उसका
राजनैतिक हथकंडा हो सकता था किन्तु जिस तरह से कन्हैया की समानता शहीद भगत सिंह के
साथ की गई वो न केवल निंदनीय है वरन देश के शहीदों का अपमान भी है. क्या कन्हैया को
महज इस आधार पर शहीद भगत सिंह के समकक्ष मान लिया जाये कि वो आज़ादी के नारे लगाने
वालों के साथ है? जिस युवक ने महज तेईस वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के अत्याचार की
परवाह किये बिना फाँसी के फंदे को चूम लिया; जिस युवक ने देश की आज़ादी के लिए खुद
को हँसते-हँसते कुर्बान कर दिया वो अतुल्य है. ऐसे अतुलनीय व्यक्तित्व की तुलना एक
ऐसे युवक से करना जो देशविरोधी हरकतों में लिप्त पाया गया हो, देश की बर्बादी के
नारे लगाने वालों का साथ देते देखा गया हो निश्चित ही शीर्ष राजनैतिक दल की विकृत
मानसिकता का परिचायक है. इन लोगों को स्वयं समझना चाहिए कि आखिर आज़ाद देश में
आज़ादी किससे चाहिए? आखिर देश की बर्बादी तक जंग रहेगी का नारा किसके समर्थन में
दिया जा रहा है?
कुछ ऐसा ही वितंडा वीर सावरकर को
गद्दार घोषित करके फैलाया जा रहा है. ये अपने आपमें एक ऐतिहासिक घटनाक्रम है कि आज
तक किसी व्यक्ति को दो बार आजीवन कारावास नहीं दिया गया है. आज़ादी की लड़ाई में
किसी को भी दो बार कालापानी की सजा नहीं सुनाई गई. ऐसी सजा एकमात्र वीर सावरकर को
सुनाई गई थी. वीर सावरकर की राष्ट्रभक्ति, उनकी निष्ठा पर महज इस कारण से
प्रश्नचिन्ह लगाना कि वे हिंदुत्व विचारधारा समर्थक रहे, नितांत गलत है. इसी तरह उनको
गद्दार महज इसलिए कह दिया जाये कि उन्होंने अंग्रेजी सरकार को पत्र लिखा था ये भी गलत है क्योंकि तत्कालीन
स्थिति में वीर सावरकर की क्या सोच रही होगी, क्या रणनीति रही होगी, किस तरह की गतिविधि का सञ्चालन करना चाहते
होंगे, आज कहा नहीं
जा सकता है. कांग्रेस को इसका भान होना
चाहिए कि वीर सावरकर की निष्ठा, उनके कार्यों, संघर्षों, विचारों का सम्मान करते
हुए उनकी पूर्ववर्ती सरकार ने ही सावरकर पर डाक टिकट का प्रकाशन किया था. यदि
विवादों को ही खड़ा करना ही कांग्रेस का उद्देश्य है तो कांग्रेस को भी बहुत सारे
जवाबों से दो-चार होना पड़ेगा. उनको बताना होगा कि शहीद भगत सिंह की फाँसी के बाद
महात्मा गाँधी का देश के नवयुवकों से शहीद भगत सिंह का अनुसरण का करने की चेतवानी
देना क्या साबित करता है? क्या इससे गाँधी जी गद्दार नहीं कहे जा सकते? अंग्रेजी
शासन के विरुद्ध संघर्ष करने में वीर सावरकर को दो बार कालापानी की सजा हो सकती
है, सैकड़ों लोगों को कालापानी भेजा जा सकता है मगर तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं में
से किसी को भी कालापानी की सजा नहीं हुई, क्यों? जिस अंग्रेजी शासन को जलियाँवाला
बाग़ हत्याकांड करने में डर नहीं लगा, लाला लाजपत राय पर लाठीचार्ज करवाने में भय
नहीं हुआ; रातोंरात भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव को फाँसी की सजा देने, उनके शव का
अंतिम संस्कार करने में देरी नहीं लगाई उसके द्वारा गाँधी-नेहरू पर कभी गोली क्यों
नहीं चलाई गई?
कांग्रेस हताशा में, निराशा में,
विवादों की राजनीति में इतना नीचे गिर जाएगी, ऐसा तो किसी ने भी नहीं सोचा होगा.
राजनीति में दलगत, विचारगत विरोध तो सहज स्वीकार्य होता है किन्तु देशविरोधी
हरकतों में लिप्त होने लगना, देश के शहीदों का अपमान करने लगना, किसी दल-विशेष,
पार्टी-विशेष के विरोध पर निकृष्टतम बिंदु तक गिर जाना किसी भी दल को शोभा नहीं
देता. कम से कम ऐसा करना कांग्रेस जैसे दल के लिए कतई गरिमामय नहीं है.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " वोटबैंक पॉलिटिक्स - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
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