फ़ैजाबाद के रामभवन में लगभग दस
वर्ष तक प्रवास पर रहने के बाद भी किसी के सामने प्रत्यक्ष रूप में न आने वाले ‘भगवन’
आज भी लोगों के लिए उतने ही गुमनाम से हैं जितने कि अपने प्रवास के दौरान थे. अपने
प्रवास के दौरान किसी ने, यहाँ तक कि उनके मकान मालिक ने भी उन्हें नहीं देखा था.
यदा-कदा किसी से मुलाकात होने की स्थिति में वह रहस्यमय व्यक्तित्व परदे के पीछे
रहकर मुलाक़ात करता था. अपनी इस रहस्यमयी पहचान के चलते वे लोगों में ‘भगवन’ के नाम
से प्रसिद्द हो गए और यही भगवन कालांतर में लोगों में ‘गुमनामी बाबा’ के रूप में स्वीकारे
जाने लगे. भगवन, गुमनामी बाबा के रूप में चर्चित रहस्यमयी व्यक्तित्व के वर्ष 1985 में देहांत के पश्चात् स्थानीय लोगों को बजाय उनके दर्शनों के उनके
सामानों के दर्शन हुए. गुमनामी बाबा के देहांत की खबर आग की तरह समूचे फ़ैजाबाद में
फ़ैल गई और लोग उनके अंतिम दर्शनों के लिए अत्यंत उत्सुक थे. ऐसे में भी उस
रहस्यमयी व्यक्तित्व का रहस्य बनाये रखा गया और अत्यंत सशंकित रूप से उनका अंतिम
संस्कार सरयू नदी किनारे कर दिया गया. आश्चर्य इसका कि उनकी पार्थिव देह को तिरंगे
में लपेटा गया था, ऐसा किसलिए किया गया होगा? इसके अलावा उनका अंतिम संस्कार उच्च प्रशासनिक
एवं सैन्य अधिकारियों की देखरेख में हुआ. इसके साथ ही सैन्य-संरक्षित क्षेत्र में
गुमनामी बाबा को अंतिम विदा देना भी कहीं न कहीं स्थानीय लोगों के विश्वास को
पुष्ट करता है कि वे कोई असाधारण व्यक्तित्व ही थे. इस आश्चर्य, विश्वास को तब और
बल मिला जबकि गुमनामी बाबा के तमाम सारे सामानों को देखकर लगभग सभी ने एक स्वर में
उन सामानों को नेताजी से सम्बंधित माना.
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देश की आज़ादी के लिए देश से बाहर
जाकर अपनी जीवटता और नेतृत्व-क्षमता के चलते सैन्य गठन करके नेताजी अंग्रेजी शासन
के लिए समस्या बने हुए थे. उनके संघर्ष का, उनकी सेना के युद्ध का अंतिम परिणाम
क्या होता इसको देखने के पूर्व ही नेताजी अचानक रहस्यमयी व्यक्तित्व बन गए. 18 अगस्त 1945 को तथाकथित विमान दुर्घटना का होना, उस
कथित दुर्घटना में नेताजी की कथित मृत्यु ने आज़ाद हिन्द फ़ौज की दिशा को प्रभावित
किया ही आज़ादी की लड़ाई को भी प्रभावित किया. अनेकानेक वीर योद्धाओं का संघर्ष काम
आया, अनेकानेक शहीदों की शहादत रँग लाई और देश 15 अगस्त 1947
को अंग्रेजी चंगुल से मुक्त हो गया. ये अपने आपमें विचित्र विडम्बना
ही कही जाएगी कि देश तो मुक्ति पा गया, अपनी स्वतंत्र पहचान पा गया किन्तु देश का
एक सपूत उसके बाद भी गुमनामी में बना रहा. विमान दुर्घटना का होना या न होना,
नेताजी की उसमें मृत्यु होना या न होना, नेताजी का गुप्त रूप से रूस चले जाना या
रूस भेज दिया जाना, अंग्रेजों और नेहरू के बीच की संधि होना या न होना, रूस में
उनकी हत्या कर दिया जाना या कैद कर लिया जाना आदि-आदि न जाने क्या-क्या बातें
लगातार तैरती रहीं. इनमें सत्य क्या है, कौन सी बात है ये तो स्वयं नेताजी ही
भली-भांति जानते-समझते होंगे किन्तु फ़ैजाबाद के गुमनामी बाबा के सामानों ने
तार्किक रूप से उनको ही नेताजी मानने को विवश सा किया है. गुमनामी बाबा के देहांत
के पश्चात् नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की भतीजी ललिता बोस उन सामानों को देखकर अपने
आँसू रोक नहीं सकी थी. ये महज संयोग ही नहीं कि बाद में ललिता बोस ने उन सामानों
को सुरक्षित रखवाने के लिए सरकार से लम्बी लड़ाई लड़ी. सामानों को देखकर स्थानीय
लोगों के साथ-साथ ललिता बोस ने भी माना कि उन सामानों के आधार पर गुमनामी बाबा ही
उनके चाचा थे. आखिरकार ललिता बोस तथा स्थानीय नागरिकों के प्रयासों से सरकार
द्वारा गुमनामी बाबा के सामानों की एक सूची बनाई गई. 23 मार्च 1986 से 23 अप्रैल
1987 के दौरान बनाई गई सूची के अनुसार आज भी फैजाबाद के सरकारी कोषागार में लगभग 2761 सामान रखे हुए हैं.
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गुमनामी बाबा का प्रवासकेंद्र रहे रामभवन
के उत्तराधिकारी एवं नेताजी सुभाषचंद्र बोस राष्ट्रीय विचार केंद्र के संयोजक शक्ति
सिंह द्वारा 13 जनवरी 2013 को याचिका दाखिल कर अनुरोध किया कि भले ही ये सिद्ध न
हो पाए कि गुमनामी बाबा ही नेताजी थे किन्तु गुमनामी बाबा के सामानों के आधार पर
कम से कम ये निर्धारित किया जाये कि वो रहस्यमयी संत आखिर कौन था? इस याचिका पर उच्च
न्यायालय ने कोषागार में रखे गुमनामी बाबा के सामानों को वैज्ञानिक विधि से सुरक्षित
करने, संग्रहालय के रूप में सार्वजनिक करने एवं रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में समिति
गठित कर गुमनामी बाबा के सामानों से पर्दा हटाने का निर्देश उत्तर प्रदेश सरकार को
दिया. न्यायालय के आदेश पश्चात गुमनामी बाबा के 24 बड़े लोहे के डिब्बों और 8 छोटे
डिब्बों अर्थात कुल 32 डिब्बों में संगृहीत सामानों को जब सामने लाया गया तो देश
के एक-एक नागरिक को विश्वास होने लगा कि गुमनामी बाबा और कोई नहीं नेताजी ही थे.
सूचीबद्ध किये गए सामानों में परिवार के फोटो, अनेक पत्र, न्यायालय से मिले समन की
वास्तविक प्रति से उनके नेताजी के होने का संदेह पुष्ट होता है. इसी तरह गोल फ्रेम
के चश्मे, मँहगे-विदेशी सिगार, नेताजी की पसंदीदा ओमेगा-रोलेक्स की घड़ियाँ, जर्मनी
की बनी दूरबीन-जैसी कि आज़ाद हिन्द फ़ौज अथवा नेताजी द्वारा प्रयुक्त की जाती थी,
ब्रिटेन का बना ग्रामोफोन, रिकॉर्ड प्लेयर देखकर सहज रूप से सवाल उभरता है कि एक
संत के पास इतनी कीमती वस्तुएँ कहाँ से आईं? इन सामानों के अलावा आज़ाद हिन्द फ़ौज की
एक यूनिफॉर्म, एक नक्शा, प्रचुर साहित्यिक सामग्री, अमरीकी दूतावास का पत्र, नेताजी
की मृत्यु की जाँच पर बने शाहनवाज़ और खोसला आयोग की रिपोर्टें आदि लोगों के
विश्वास को और पुख्ता करती हैं.
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सामानों के आधार पर बाबा को नेताजी
माना जा सकता है किन्तु आधिकारिक पक्ष अभी आना बाकी है. हाल फिलहाल तो गुमनामी
बाबा का सामान सूचीबद्ध करके पुनः तालाबंदी में है. जल्द ही यदि न्यायालयीन आदेश
पर इस सामान को संग्रहालय के रूप में सार्वजनिक किया गया तो ये भी लोगों के
विश्वास की जीत ही होगी. नेताजी के प्रशंसकों के विश्वास की अंतिम विजय नेताजी
सुभाष चन्द्र बोस की मृत्यु के रहस्य से पर्दा उठने पर ही होगी.
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जल्दी ही पर्दा उठे िस रहस्य से।
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