वर्तमान में समाज में
एक ओर जीवन-शैली के नवीन स्वरूप पर लोग चर्चा करने को आतुर दिखते हैं, वहीं हमारे मंत्री लड़कियों की विवाह योग्य उम्र को घटाकर 15 वर्ष करने का सुझाव देते दिखाई पड़ते हैं। मंत्री जी के बयान को सिर्फ
बेतुका बयान कह कर पूर्णरूप से खारिज नहीं किया जाना चाहिए वरन् हमें सामाजिक
ढाँचे का अध्ययन करके उसके निहितार्थ को समझना चाहिए। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य
इस तरह का बन गया है कि वहाँ किसी भी योग्य समझे जाने वाले राजनीतिज्ञ की बात को
भी अपने-अपने चश्मे से देखने की और उसका विश्लेषण करने की आदत हम सभी की बन चुकी
है। एक ओर यदि हम समाज में समलैंगिकता पर, लिव-इन-रिलेशनशिप
पर देशव्यापी बहस करने पर विचार कर सकते हैं तो समाज लड़कियों की विवाह योग्य आयु
को घटाकर 15 वर्ष करने के प्रस्ताव के बहाने विवाह संस्था की
उपयोगिता, उसके भविष्य पर विचार क्यों नहीं कर सकता?
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मंत्री जी का बयान आया
बलात्कार मामलों को लेकर, तो यदि एकबारगी इस बात को मान भी
लिया जाये कि लड़कियों की विवाह की आयुसीमा को कम कर देने से इन कुकृत्यों पर रोक
लग सकेगी तो क्या यह मान लेना चाहिए कि इसके बाद बलात्कार विवाहित महिलाओं के साथ
ऐसा नहीं होगा; विवाहित पुरुषों द्वारा ऐसा नहीं किया जायेगा?
ये एक प्रकार का शेखचिल्लीनुमा समाधान है किन्तु इस बयान की आड़ में
समाज में इस बात की बहस की गुंजाइश बनती है कि क्या समाज में आज भी विवाह संस्था
की ‘सहज स्वीकार्यता’ है? ये देखने की बात है और समझने की भी कि कैरियर की भागदौड़ में लगी युवा पीढ़ी
ने विवाह को वरीयता देना बन्द कर दिया है, बल्कि उनके द्वारा
लिव-इन-रिलेशनशिप को प्रमुखता दी जा रही है। समलैंगिकता को कानूनी स्वरूप दिये
जाने के बाद से भी विवाह संस्था के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाये जाने लगे हैं।
इन स्थितियों में बजाय मंत्री जी के बयान को प्रमुखता देने के समाज के प्रति
उत्तरदायी लोगों का कर्तव्य यह होना चाहिए कि विवाह संस्था के वर्तमान और भविष्य
पर देशव्यापी बहस करवाई जाये।
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सामाजिक परिदृश्य में
बेपरवाह रूप से बदलाव देखने में आ रहा है। सदियों की बनी-बनाई धारणाओं, परम्पराओं, मान्यताओं और संस्थाओं का या तो ध्वंस हो
चुका है अथवा इसकी कगार पर हैं। ऐसे हालातों में विवाह संस्था को अधिसंख्यक रूप से
मध्यमवर्गीय भारत ही जीवित रखे हुए है और वह भी कई बार विघटनकारी स्थिति में दिखाई
देता है। विवाह संस्था के वर्तमान की सोचनीय स्थिति को विगत एक दशक में हुए तलाक
के मामलों के द्वारा भी आसानी से समझा जा सकता है। दाम्पत्य जीवन में कैरियर को
लेकर, बच्चों को लेकर, परिवार को लेकर,
स्वतन्त्रता को लेकर, आर्थिक स्थिति को लेकर
इतनी विषमतायें घर कर गईं हैं कि उनसे आपसी समन्वय से, सहमति
से निपटने के स्थान पर पति-पत्नी तलाक लेकर अलग-अलग रहने को महत्व देते हैं।
अधिसंख्यक रूप से ऐसे दाम्पत्य जीवन के दर्शन भी होते हैं जो आपसी वैमनष्य के होने
के बाद भी सामाजिकता के लिए, किसी मजबूरी के लिए एक ही छत के
नीचे अलग-अलग परिवार के रूप में रह रहे हैं। ऐसी स्थिति सभी के साथ नहीं है फिर भी
आज इसकी बहुलता देखने को मिलती है।
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ऐसे विषम हालातों में
बहस इस बात पर हो कि जीवन-चक्र को सुगमता से चलाने के लिए, सृष्टि
के स्वीकार्य रूप से प्रवाह करने के लिए, सामाजिकता के
सार्थक विकास के लिए विवाह संस्था को सहजता कैसे प्रदान की जाये? विवाह संस्था से दूर भाग रहे युवा पीढ़ी को कैसे इसकी महत्ता समझाई जाये?
कैसे उन्हें परिवार की एकजुटता का पाठ सिखाया जाये? लिव-इन-रिलेशनशिप, समलैंगिकता, एकाकी जीवन कुछ पल को खुशी दे सकता है, महत्वाकांक्षा
को पूरा कर सकता है किन्तु सुकून नहीं दे सकता, पारिवारिकता
को सम्पूर्ण नहीं कर सकता, सामाजिकता में वृद्धि नहीं कर
सकता। कहीं न कहीं यही अपूर्णता, यही एकाकीपन, यही क्षणिक खुशी समाज में विकृतियों को जन्म देती है; जिनमें एक विकृति बलात्कार के रूप में भी सामने आती है।
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असली समस्या का हल न निकाल यह लोग केवल बेतुकी दलीलें दे रहे है !
जवाब देंहटाएंइंडियन राम भी हुए 'मेड इन चाइना' के मुरीद - ब्लॉग बुलेटिन आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
किसी भी समस्या के जड में जाना चाहिए ..
जवाब देंहटाएंपढाई और कैरियर की मजबूरी कम उम्र के किशोरों को माता पिता से दूर कर रही है ..
पहले इस समस्या का समाधान आवश्यक है