आज जब किसी गली में बच्चों के शोर की जगह पर मोटरसाइकिलों
की आवाजें, मोबाइल पर बजते गानों अथवा उनकी रिंगटोन को सुनते हैं तो लगता है जैसे बचपन
कहीं गुम सा गया है। हालांकि अभी भी हमारी गली इससे बची हुई है,
यहाँ सुबह-दोपहर-शाम, जब भी बच्चों को (यहाँ तक कि हम बड़ों को भी) मौका मिलता है
शोर-शराबे के साथ निकल कर हुड़दंग मचाने घरों से बाहर निकल पड़ते हैं। इसके ठीक उलट
अपने शहर में तथा अधिकांश शहरों की गलियों को, पार्कों को बच्चों के मधुर शोर-गुल से विहीन देखा जा सकता
है।
हमें याद आता है अपना बचपन, हम जिस मुहल्ले में रहा करते थे वहाँ आसपास कोई पार्क अथवा
खेलने लायक मैदान नहीं था (आज भी इनकी कमी हमारे शहर में महसूस की जाती है) इसके
बाद भी मुहल्ले के सभी बच्चे गली में खूब धमाचौकड़ी मचाया करते थे। घरों के काँच भी
टूटते थे,
सामान भी टूटता था यहाँ तक कि कभी-कभी किसी बड़े का सिर भी
चोटिल हो जाता था पर हम बच्चों के दिल न तो टूटने पाये और न ही चाटिल होने पाये।
आज बच्चों का घरों से बाहर निकल कर खेलना लगभग बन्द सा हो गया है। न तो उनकी
गेंदों से किसी के काँच के चटकने की आवाजें आती हैं और न ही किसी दादी-बाबा के
डाँटने-फटकारने की आवाजें सुनाई देती हैं।
दरअसल ज्यों-ज्यों हम इंसानों ने विकास की राह पकड़ी,
त्यों-त्यों रिश्तों की डोर को पीछे छोड़ने का उपक्रम बनाये
रखा। हम आगे तो बढ़ते गये पर अपनी इंसानियत को बहुत पीछे छोड़ आये। हमने अपने अलावा
किसी और पर विश्वास करना बन्द कर दिया है। अपने अतिरिक्त किसी दूसरे को अपने पास
आने लायक नहीं समझा है। अपने परिवार का दायरा पति-पत्नी और बच्चों तक ही सीमित कर
दिया है। ऐसे में जहाँ समाज में आपसी भाईचारे में कमी आई है,
वहीं रिश्तों में भी कड़वाहट पैदा हुई है। हम अपनी गलतियों
को सुधारने के बजाय, अपने आपको सुधारने के बजाय, अपने रिश्तों को सुधारने के बजाय गलतियों का ठीकरा किसी और
पर फोड़ते हैं। बच्चों के बाहर निकल कर न खेलने को पार्कों की कमी,
खेल के मैदानों का न होना, आधुनिक तकनीकों का विकसित होते जाना,
अविश्वास की स्थिति का पनपना, असुरक्षा का माहौल होना आदि बताते हैं।
हमें याद रखना चाहिए कि बच्चों को भेदभाव हमने ही सिखाया है;
बच्चों के अन्दर भय हमने ही पैदा किया है;
उनके भीतर अविश्वास का जन्म हमने ही दिया है;
तकनीक के सहारे कमरे में समय गुजार देना उन्हें हमने ही बताया
है। हमें अपने बच्चों के बचपन का स्मरण करते हुए इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि यह
अवस्था इंसान के सम्पूर्ण जीवनकाल की वह अवस्था है जिसे वह ताउम्र नहीं भूल पाता
है। इस अवस्था की मस्ती, मासूमियत, शरारतें, हुल्लड़ आदि-आदि अपने आपमें एक अजूबा होते हैं और हमने अपने
क्षणिक दम्भ के लिए, क्षणिक अभिमान के लिए इन सबसे अपने ही बच्चों को वंचित कर
रखा है। अपने इस दम्भ, अभिमान को अपने लिए न सही, अपने बच्चों के लिए त्यागें और समाज में वही माहौल बनायें
जिसमें हमारे बच्चे बिना किसी डर के, बिना किसी अविश्वास के आपस में शोर-शराबा करते हुए अपने
बचपन का आनन्द ले सकें। जो भी यह कहता हो कि वर्तमान दौर में ऐसा हो पाना मुश्किल
है,
असम्भव है वह सब कुछ छोड़कर एक बार हमारे मुहल्ले की गली में
आ जाये। वह स्वयं का भूलकर वहाँ अपना बचपन महसूस करके प्रफुल्लित हो उठेगा।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंआपके इस सारगर्भित लेख की शान में अपना एक शेर अर्पित करता हूँ:
जवाब देंहटाएंकभी बच्चों को मिल कर खिलखिलाते नाचते देखा
लगा तब जिंदगी ये हमने क्या से क्या बना ली है
नीरज