हाय! ये आह एक हमारी नहीं, हर उस व्यक्ति की है जो बाजार के कुअवसरों से दो-चार होता है। बाजार का नजारा और इस नजारे के बीच सामानों के दामों का आसमान पर चढ़े होना। बहुत प्रयास किया गया हमारे वित्त-मंत्री जी की ओर से किन्तु सामानों के दाम हैं कि नीचे आने को तैयार नहीं हैं। बेचारे........(न न न वित्त-मंत्री जी बेचारे नहीं बल्कि सामानों के लिए है यह शब्द) हाँ तो, बेचारे सामान नीचे दुकान में सजे-सजे ग्राहक के आने की राह देख रहे हैं और दाम हैं कि नीचे आकर उनकी मदद करने को तैयार नहीं।
इस मंहगाई के दौर में सामानों से पटे बाजार और दामों के ऊपर आसमान में जा बसने पर लगा कि जैसे गठबन्धन सरकार के घटक तत्वों में कहा-सुनी हो गई है। सामान बेचारे अपने आपको बिकवाना चाहते हैं पर दाम हैं कि उनका साथ न देकर उन्हें अनबिका कर दे रहे हैं। क्या हो ऐसे में? वित्त-मंत्री जी ने बहुत समझाया पर बेकार..........।
फिर लगा कि ऐसा तो नहीं कि हमारे देश की संसद और विधानसभाओं में बैठे महानुभाव चूँकि बाजार घूमने-टहलने से रूबरू तो होते नहीं हैं, इस कारण उनके पास किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तो होती नहीं है। अब बताइये आप, जब जानकारी नहीं तो बेचारे (हाँ, अबकी बार हमारे महानुभाव) कैसे कीमतों को कम करने का सोचते?
इस महानुभावों का तो हाल ये है कि आदेश मारा तो दाल हाजिर, आदेश दिया तो चीनी हाजिर (पता नहीं डायबिटीज के कारण चीनी खाते भी हैं या नहीं?), गाड़ी में तेल डलवाने का पैसा तो देना नहीं है, रसोई के लिए गैस का इंतजाम भी नहीं करना है और न ही लाइन में खड़े होकर सिलेंडर के लिए मारा-मारी करनी है। अब इतने कुअवसर खोने के बाद कोई कैसे जान सकता है कि कीमतों में वृद्धि हो रही है।
बाजार के कुअवसरों से तो आम आदमी ही दो-चार होता है जो लगातार मार खा-खाकर पिलपिला हो जाता है। इस पिलपिलेपन का कोई इलाज भी नहीं है। यह किसी जमाने में चुटकुले की तरह प्रयोग होता था किन्तु आज सत्य है कि अब आदमी झोले में रुपये लेकर जाता है और जेब में सामान लेकर लौटता है। (नहीं भाई, गाड़ी, कम्प्यूटर, लैपटाप आदि तो यहाँ अपवाद हैं। वैसे भी ये सारी आवश्यक वस्तुएँ आम से पिलपिले होते लोगों के लिए हैं भी नहीं, तभी तो इनके दामों में कमी है।)
आये दिन मंहगाई पर देश में कोई न कोई अपना शिगूफा छोड़ देता है और बैठ जाता है धरने आदि पर। अरे आप देखो इस सत्र में महिला आरक्षण पर ही चर्चा हुई है और मंहगाई को तो दोयम दर्जे का मुद्दा मानकर किनारे लगा दिया गया है। जैसे समाज ने भ्रष्टाचार को, रिश्वतखोरी को दैनिक चर्या में शामिल कर लिया है, उसी तरह मंहगाई को लेकर भी वातावरण तैयार किया जा रहा है। जिस तरह से भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के प्रति अब हम आन्दोलित नहीं होते बल्कि बिना रिश्वत के किसी काम के पूरा न होने को सहजता से स्वीकार चुके हैं उसी तरह से मंहगाई को भी अंगीकार करने के लिए बाँहे फैलाये खड़े हैं।
यदि ऐसी ग्राह्य क्षमता है हम आम जनता की तो मंहगाई को भी आसानी से ग्राह्य कर जायेंगे, परेशानी कैसी। इस पूरी मगजमारी करने के पीछे मात्र इतनी ही सोच है कि फिर क्यों हम बेचारे वित्त-मंत्री जी को कोसने में लगे हैं? सामानों और दामों का आपसी समन्वय, गठबन्धन समाप्त सा लग रहा है इस कारण दोनों में दूरियाँ दिख रहीं हैं। देश की जनता तो पिसती ही रही है, चाहे वह नेताओं के आपसी गठबन्धन को लेकर पिसे अथवा सामानों और दामों के आपसी समन्वय को लेकर। सत्ता के लिए किसी का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, टूट सकता है ठीक उसी तरह मंहगाई का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, दामों और सामानों का गठबन्धन टूट भी सकता है।
इस छोटी सी और भारतीय राजनीति की सार्वभौम सत्यता को ध्यान में रखते हुए कृपया वित्त-मंत्री जी को उनकी नादान कोशिशों के लिए क्षमा कर दीजिए।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
इस मंहगाई के दौर में सामानों से पटे बाजार और दामों के ऊपर आसमान में जा बसने पर लगा कि जैसे गठबन्धन सरकार के घटक तत्वों में कहा-सुनी हो गई है। सामान बेचारे अपने आपको बिकवाना चाहते हैं पर दाम हैं कि उनका साथ न देकर उन्हें अनबिका कर दे रहे हैं। क्या हो ऐसे में? वित्त-मंत्री जी ने बहुत समझाया पर बेकार..........।
फिर लगा कि ऐसा तो नहीं कि हमारे देश की संसद और विधानसभाओं में बैठे महानुभाव चूँकि बाजार घूमने-टहलने से रूबरू तो होते नहीं हैं, इस कारण उनके पास किसी तरह की तथ्यात्मक जानकारी तो होती नहीं है। अब बताइये आप, जब जानकारी नहीं तो बेचारे (हाँ, अबकी बार हमारे महानुभाव) कैसे कीमतों को कम करने का सोचते?
इस महानुभावों का तो हाल ये है कि आदेश मारा तो दाल हाजिर, आदेश दिया तो चीनी हाजिर (पता नहीं डायबिटीज के कारण चीनी खाते भी हैं या नहीं?), गाड़ी में तेल डलवाने का पैसा तो देना नहीं है, रसोई के लिए गैस का इंतजाम भी नहीं करना है और न ही लाइन में खड़े होकर सिलेंडर के लिए मारा-मारी करनी है। अब इतने कुअवसर खोने के बाद कोई कैसे जान सकता है कि कीमतों में वृद्धि हो रही है।
बाजार के कुअवसरों से तो आम आदमी ही दो-चार होता है जो लगातार मार खा-खाकर पिलपिला हो जाता है। इस पिलपिलेपन का कोई इलाज भी नहीं है। यह किसी जमाने में चुटकुले की तरह प्रयोग होता था किन्तु आज सत्य है कि अब आदमी झोले में रुपये लेकर जाता है और जेब में सामान लेकर लौटता है। (नहीं भाई, गाड़ी, कम्प्यूटर, लैपटाप आदि तो यहाँ अपवाद हैं। वैसे भी ये सारी आवश्यक वस्तुएँ आम से पिलपिले होते लोगों के लिए हैं भी नहीं, तभी तो इनके दामों में कमी है।)
आये दिन मंहगाई पर देश में कोई न कोई अपना शिगूफा छोड़ देता है और बैठ जाता है धरने आदि पर। अरे आप देखो इस सत्र में महिला आरक्षण पर ही चर्चा हुई है और मंहगाई को तो दोयम दर्जे का मुद्दा मानकर किनारे लगा दिया गया है। जैसे समाज ने भ्रष्टाचार को, रिश्वतखोरी को दैनिक चर्या में शामिल कर लिया है, उसी तरह मंहगाई को लेकर भी वातावरण तैयार किया जा रहा है। जिस तरह से भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी के प्रति अब हम आन्दोलित नहीं होते बल्कि बिना रिश्वत के किसी काम के पूरा न होने को सहजता से स्वीकार चुके हैं उसी तरह से मंहगाई को भी अंगीकार करने के लिए बाँहे फैलाये खड़े हैं।
यदि ऐसी ग्राह्य क्षमता है हम आम जनता की तो मंहगाई को भी आसानी से ग्राह्य कर जायेंगे, परेशानी कैसी। इस पूरी मगजमारी करने के पीछे मात्र इतनी ही सोच है कि फिर क्यों हम बेचारे वित्त-मंत्री जी को कोसने में लगे हैं? सामानों और दामों का आपसी समन्वय, गठबन्धन समाप्त सा लग रहा है इस कारण दोनों में दूरियाँ दिख रहीं हैं। देश की जनता तो पिसती ही रही है, चाहे वह नेताओं के आपसी गठबन्धन को लेकर पिसे अथवा सामानों और दामों के आपसी समन्वय को लेकर। सत्ता के लिए किसी का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, टूट सकता है ठीक उसी तरह मंहगाई का किसी से भी गठबन्धन हो सकता है, दामों और सामानों का गठबन्धन टूट भी सकता है।
इस छोटी सी और भारतीय राजनीति की सार्वभौम सत्यता को ध्यान में रखते हुए कृपया वित्त-मंत्री जी को उनकी नादान कोशिशों के लिए क्षमा कर दीजिए।
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चित्र गूगल छवियों से साभार
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