27 अक्टूबर 2008

इन महिलाओं से कुछ सीखना होगा

दीपावली का त्यौहार आ गया है, लक्ष्मी जी की पूजा होगी; इससे पहले नव रात्रि का पावन पर्व भी मनाया गया. इस पर्व पर भी किसी न किसी रूप में नारी शक्ति की पूजा की जाती है, कन्याओं को भोजन करवाया जाता है. इसी के ठीक उलट ये भी सत्य है कि महिलाओं को इसी समाज में अपने अस्तित्व के लिए लडाई करनी पड़ रही है और लड़कियों को जन्म के लिए आन्दोलनों का सहारा लेना पड़ रहा है. इन्हीं सबके बीच कुछ लोग (इनमें महिलायें और पुरूष दोनों शामिल हैं) नारी-शक्ति, स्त्री-विमर्श को पुरजोर हवा दे रहे हैं. अनेक नारे, अनेक गोष्ठियां, अनेक तरह के लेख आदि ये सिद्ध करने में लगे हैं कि नारी-शक्ति कुछ भी कर सकती है. ये सत्य है कि नारी-शक्ति कुछ भी कर सकती है पर आज स्त्री-विमर्श, स्त्री-सशक्तिकरण के नाम पर जो हो रहा है वो स्त्री को कटघरे में ही खडा करता है. कुछ कहे बिना आज की कुछ वस्तविक नारियों के उदहारण आपको बताते हैं, शायद आपको लगे कि ये ही वो नारियां हैं जो सही मायनों में स्त्री-शक्ति का उदहारण हैं।
देश में पुरोहिती, कर्म-कांडों का अपना स्थान रहा है और अभी तक ये सब पुरुषों के द्वारा ही होता आया है। अब कुछ महिलाओं ने इस क्षेत्र में कदम रख कर अपनी शक्ति का अहसास करवा दिया है।
बनारस के तुलसीपुर में स्थित पाणिनी कन्या महाविद्यालय से शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कुछ लड़कियों ने विवाह करवाने का कार्य शुरू किया। इसके लिए उनका ब्राहमण होना आवश्यक नहीं है। महाविद्यालय की आचार्य नंदिता शास्त्री बड़े ही गर्व से बतातीं हैं कि अब इन छात्राओं को देश के अतिरिक्त विदेश से भी लोग बुला रहे हैं।
यहाँ की पूर्व छात्रा मैत्रेयी का कहना है कि उनके पास अमेरिका तक से आमंत्रण आ रहे हैं। ये छात्राएं विवाह करवाने के साथ-साथ शान्ति-यज्ञ, गृह-प्रवेश, मुंडन, नामकरण, यज्ञोपवीत आदि करवा रहीं हैं।
इसी तरह कानपुर के कानपूर विद्या मन्दिर डिग्री कालिज की प्राचार्य डॉ0 आशारानी राय वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच पुरोहिती का कार्य करतीं हैं। उन्हों ने किसी भी विरोध की परवाह किए बगैर अपनी छात्राओं को वेद पाठ भी करवाया। इसके अतिरिक्त उन्हों ने महिलाओं के लिए सर्वथा निषिद्ध माने गए क्षेत्र श्मशान घाट में जाकर अन्तिम संस्कार भी करवाए हैं और करवा भी रहीं हैं। अपने पिता और श्वसुर का अन्तिम संस्कार भी उन्हीं ने किया था.
इन्हीं की तरह सुनीति गाडगिल ने विवाह के अतिरिक्त श्राद्ध कर्म भी करवाए हैं। बनारस की ही पांडेयपुर की निवासी वन्दना जायसवाल उर्फ़ अनु ने, नगर निगम के सफाई कर्मी मुन्ना की विधवा बीडा देवी और भेलूपुर की महिला चित्रकार और विदेश में कला की प्रोफेसर रहीं डॉ0 अलका मुखर्जी आदि ने अपने परिवार में किसी अन्य पुरूष के न रहने पर माता, पिता, पति आदि का अन्तिम संस्कार विधवत संपन्न किया।
ऐसा नहीं है कि पढ़ी-लिखी महिलाओं द्वारा ऐसा किया जा रहा है। राजस्थान की 72 वर्षीय विधवा की मृत्यु पर उसकी सात बेटियों ने अर्थी को कन्धा दिया और चिता को मुखाग्नि देकर पिंडदान तक किया.
हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर जिले की दलित महिला प्रेमा देवी ने तो अपने पति की मृत्यु पर आपने बेटों को अर्थी को कंधा नहीं लगाने दिया। उसका कहना था कि इन बेटों ने जीते-जी अपने पिता, मेरे पति की सेवा नहीं की इस कारण इनको कोई अधिकार नहीं कि उनकी अर्थी को कन्धा दे या फ़िर अन्तिम संस्कार करें. अंततः उस महिला की जिद के बाद उसकी दोनों बहुओं और पड़ोस की दो अन्य महिलाओं ने उसके पति की अर्थी को कन्धा दिया, मुखाग्नि उसके पोतों ने दी।
इस तरह की घटनाओं के अतिरिक्त कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विवाह के अवसर पर होने वाले रस्मों में परिवर्तन तक मात्र इस कारन कर रहे हैं क्योंकि वे लड़के-लड़कियों में किसी तरह का अन्तर नहीं करते हैं.
बनारस के कश्यप फ़िल्म एंड टेलीविसन रिसर्च इंस्टिट्यूट के निदेशक डॉ0 डी0 कश्यप ने अपने तीन बेटों के विवाह में बेटों को नहीं बल्कि अपनी बहुओं को घोडी पर चढ़वाया था. उन्हों ने अपनी बहुओं का द्वारचार संस्कार कर पहले उनको मंच पर महाराज कुर्सी पर बिठवाया उसके बाद उनके लड़कों ने आकर जयमाला डाली। इस विवाह में फेरे, कन्यादान जैसी रस्मों को नहीं निभाया गया. यहाँ सिर्फ़ जयमाल और सिंदूरदान हुआ।
इसी तरह जयपुर की जुड़वां बहनों ने एक साथ विवाह के समय घोडी पर सवार होकर बिन्दौरी नामक परम्परा मे ये क्रांतिकारी कदम उठा कर दिखा दिया कि उनमें और लड़कों मे किसी तरह का अन्तर नहीं है।
शादी-विवाह, मुन्दम, संस्कारों से इतर एक और कार्य में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्शाई है और वो है बालाजी के मन्दिर में नाइनों का काम शुरू करके। इस मन्दिर में आने वाले लोग अपने केशों को भगवान् पर चढाते हैं और इनमें महिलाएं भी होतीं हैं। महिलाओं ने अब यहाँ भी बाल काटने का काम शरू किया है जिसे अभी तक यहाँ सिर्फ़ पुरूष ही करते थे।
एक मुस्लिम महिला ने तो क्रन्तिकारी कदम उठा कर पहली महिला काजी होने का गौरव प्राप्त किया है। पश्चिम बंगाल के पूर्वी मिदनापुर जिले के गाँव नंदीग्राम की शबनम आरा ने अपने काजी पिता के लकवा-ग्रस्त हो जाने पर निकाह आदि में उनका सहयोग करना शरू किया। धीरे-धीरे उनको शरीयत का इल्म हो गया। बाद में पिता की मृत्यु के बाद उन्हों ने अपना पंजीयन काजी के रूप में करवाया। मुश्किलों के बीच अंततः वे सफल रहीं और आज काजी के रूप में काम कर रहीं हैं।
ये कुछ उदाहरण हैं जो महिलाओं की हिम्मत को दर्शाते हैं। यही असली महिला-शक्ति है जो विपरीत परिस्थितियों से न घबरा कर अपना मुकाम बना चुकीं हैं। क्या कम कपडों और लचकते बदन को नारी-शक्ति समझने वाली महिलायें इन महिलाओं से कुछ सीखेंगीं? पुरुषों को कुछ सीखने की जरूरत नहीं क्योंकि उसे महिला की जरूरत नहीं, यदि होती तो कन्या-भ्रूण हत्या न हो रहीं होतीं?

{ये जानकारी श्री कृष्ण कुमार यादव, वरिष्ठ डाक अधीक्षक, कानपुर नगर मंडल, कानपुर के लेख "बदलते सरोकारों के बीच स्त्री समाज" द्वारा प्राप्त हुई। ये लेख स्पंदन (साहित्यिक पत्रिका) के मार्च 2008 अंक में प्रकाशित हुआ था।}

8 टिप्‍पणियां:

  1. दिपावली की हार्दीक शूभकामनाऎं

    -www.kunnublog.blogspot.com

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  2. अच्छी जानकारी दी है आपने । मिहलाएं वास्तव में बहुत बेहतर काम कर रही हैं । अच्छा िलखा है आपने ।

    दीपावली की शुभकामनाएं

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  3. अच्छी जानकारी दी है आपने । आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

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  4. कृष्ण कुमार जी यह आलेख पढ़ कर अच्छा लगा.

    आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

    समीर लाल
    http://udantashtari.blogspot.com/

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  5. thanks you very much for writing on woman oriented issues
    regds
    rachna

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  6. दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं...

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  7. सुंदर लिखा है. दीपावली की शुभ कबहुतामनाएं.

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