24 अक्तूबर 2008

मन का विश्वास भगवान, मन का वहम भूत

हम इक्कीसवीं सदी में खड़े हैं और अंधविश्वास को अभी भी उसी तरह जकडे बैठे हैं जैसे कि कहीं हड़प्पा संस्कृति में निवास कर रहे हों. आए दिन तमाम तरह के आडम्बरों का संचालन, भूत-प्रेतों के किस्से, ओझा-तांत्रिकों की गतिविधियाँ आदि-आदि बतातीं हैं कि हम पढने लिखने के साथ-साथ इन सब बातों पर भी बहुत ज्यादा विश्वास करने लगे हैं. हो सकता है कि ये बात बहुतों को न पचे पर ये व्यक्तिगत रूप से हमारे साथ सत्य है कि हम भूत-प्रेत को नहीं मानते और उसी के साथ भगवान् को भी नहीं मानते; इसके उलट एक शक्ति पर विश्वास है जो अच्छी है तो भगवान् और बुरी है तो भूत.
अपनी मित्र-मंडली में इस बात को लेकर बहुत बहसाबहसी होती है. हमारे कई मित्रों का, जो भगवान्, पूजा-पथ आदि करते हैं उनका कहना है कि भगवान् है और भूत नहीं. वे तर्क देते हैं कि भूत मन का वहम है, हमारा मानना है कि भगवान् मन का विश्वास है. उनका कहना है कि भूत को किसने देखा, हमारा जवाब कि भगवान् को किसने देखा? बहस चलती रहती है, तर्क-वितर्क होते रहते हैं वे अपनी बात पर अडे रहते हैं हम अपनी बात पर. इधर कुछ ऐसा हुआ कि लगा कि इन सब बातों पर आजकल लोगों का ध्यान अपनी आपाधापी की जीवन-शैली के कारण भी बढ़ गया है. मन का विश्वास किसी चीज को भगवान् बना देता है और मन का वहम उसी चीज को भूत बना देता है.
अपने मन की सोच और परिस्थिति भी बहुत हद तक भूत-भगवन की स्थिति का निर्धारण करती है. अपने छात्र जीवन में स्नातक की पढाई के समय होस्टल में रहने का अवसर मिला. ग्वालियर साइंस कॉलेज की बात है. पहला वर्ष, होस्टल में भी आए हुए लगभग एक माह हुआ था. हमारा होस्टल जिस जगह पर बना था वहाँ किसी ज़माने में कब्रिस्तान रहा था (ऐसा वहाँ के बूढे बाबा और पुराने छात्रों, लोगों का कहना था) बहरहाल, होस्टल के शुरू के दिनों में पढाई कम और हुडदंग अधिक होता था. सीनियर छात्रों का एक विशेष अभियान रात को दस-ग्यारह बजे के बाद चलता था नए छात्रों के रूम में जाकर अड्डेबाजी करना और हँसी-मजाक के दौर के बीच भूत-प्रेतों के किस्से सुनाना; होस्टल के अन्दर होने वाली डरावनी बातों, घटनाओं (उनकी ख़ुद की बनाई कहानी) की बड़े डरते हुए अंदाज़ में चर्चा करना. ऐसा लगभग रोज का काम होता था।
इधर घर में कुछ माहौल ऐसा रहा कि डर नहीं लगता था पर होस्टल के नाम का डर किसी भी भूत से अधिक था.नए-नए थे इस कारण रैगिंग का भी डर रहता था पर माहौल बहुत अच्छा रहता था. बहरहाल एक रात को यही कहानी ख़तम हुई और सब अपने-अपने कमरों को चले गए. हमारा रूम-पार्टनर 'राजीव' हमारे शहर उरई का ही था और वो किसी काम से घर आ गया था. रूम में हम अकेले, भूतों-प्रेतों, डरावने किस्सों को लेकर सोने लगे. सोये हुए लगभग एक घंटा हुआ होगा (शायद तीन बजे का समय रहा होगा) खर्र....खर्र....खर्र की आवाज़ सुनाई पडी. पलंग के सिरहाने ही हमारी स्टडी टेबल रहती थी हाथ बढ़ा कर उस पर रखा टेबल-लेम्प जला दिया...आवाज़ आनी बंद हो गई. कमरे में इधर-उधर देखा, कहीं कुछ नहीं............फ़िर लाईट बंद की, आँख बंद की और फ़िर वही खर्र......खर्र.....खर्र की आवाज़.........फ़िर हाथ बढ़ा कर लाईट जलाई, आवाज़ बंद। ऐसा लगभग पाँच-छः बार हुआ. अब न डरने के बाद भी एक अनजाना सा डर लगने लगा.
बड़ी हिम्मत करके बगल में रखी हाकी उठा कर उस खिड़की तरफ़ देखा जहाँ से आवाज़ आ रही थी. नीचे झांक कर देखा (कमरा पहली मंजिल पर था) एक आवारा गाय पेड़ के तने से अपना सींग रगडती है. जब लाईट बंद रहती है तो वो सींग रगड़ने लगती है और लाईट जलने पर बंद कर देती थी. यहाँ हमारे न डरने का एक कारण ये भी रहा था कि हमें लग रहा था कि होस्टल का हमारा कोई साथी हमें डराने की कोशिश कर रहा है पर एक डर ये भी लग रहा था कि ऐसा क्या है जो लाईट जलते ही बंद हो जाता है और लाईट बंद होते ही आवाज़ करना शुरू कर देता है?
आज-कल कुछ इसी तरह की स्थिति हमारी हो गई है.......चैनल हमारे हास्टल के पुराने छात्रों की तरह किस्से-कहानियाँ सुना-दिखा रहे हैं..........हम अपने सोचने-समझने की शक्ति को बंद करे डर रहे हैं. अपने लिए न सही आने वाली पीढी के लिए ही सही, हाथ बढ़ा कर समझ-विश्वास की लाईट को जलाना होगा।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा िलखा है आपने ।

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छा आलेख!!

    आपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

    जवाब देंहटाएं
  3. पीपल पर भगवान विष्णु का भी निवास है और भूत का भी दिन में भगवान रात को भूत। पीपल से पूछा -भाई और कौन कौन रहता है तुम्हारे अंदर?
    उसने सारे पत्ते हिलाते हुए ठहाका लगाया। मेरे अंदर कुछ नही रहता, जो रहता है वह लोगों के दिमाग में ही रहता है।

    जवाब देंहटाएं