06 दिसम्बर राष्ट्रीय स्तर पर महत्त्वपूर्ण तो है ही, व्यक्तिगत स्तर पर हमारे लिए भी महत्त्वपूर्ण
है. बाबरी ढाँचे के ध्वंस से इतर सन 2005 में इसी दिन गांधी महाविद्यालय, उरई में अध्यापन कार्य हेतु अपना पहला कदम रखा था.
आज बीस वर्ष की समाप्ति बाद अपनी इस यात्रा को देखते हैं तो इसमें न संतुष्टि नजर
आती है, न उपलब्धि. ऐसा महसूस
होता है कि जैसे एक बहुत लम्बा और महत्त्वपूर्ण समय निरर्थक गुजार दिया.
इन बीस वर्षों में अपने जीवन में बहुत सारे उतार-चढ़ाव देखे जो इस कार्यक्षेत्र
से सम्बंधित भी रहे और नितांत पारिवारिक भी रहे. दोनों के साथ तालमेल बिठाने का प्रयास
करते हुए आगे भले ही बढ़ते रहे मगर कहीं आगे पहुँच न पाए. गम्भीरता से जब अपना ही आकलन
करते हैं तो एहसास होता है कि आज भी उसी स्थिति में खड़े हैं जहाँ 06 दिसम्बर 2005 को
खड़े हुए थे.
जिनको वेतन सम्बन्धी आँकड़ा उपलब्धि लगता होगा उनको ये बात हजम नहीं होगी. ये सही
है कि नौकरी के पहले दिन और आज के वेतन में बहुत बड़ा अंतर आया है मगर धनोपार्जन को
उपलब्धि नहीं कहा जा सकता है. विगत वर्षों में अनेकानेक कारणों से जिस तरह से कार्यक्षेत्र
में विसंगतियों से जूझना हुआ है, खुद का सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य से दूर होना हुआ है, लेखन-साहित्य के क्षेत्र से जुड़े रहने के बाद भी अनमना सा रहा है उसने एक तरह
की शून्यता ही पैदा की है.
बहरहाल, कहानी बहुत लम्बी
और बड़ी है. सारांश महज इतना ही है कि इन बीस वर्षों की अध्यापन यात्रा में मिला कुछ
नहीं और खोया बहुत कुछ है; पाया कुछ नहीं पर गँवाया बहुत कुछ
है. हाथ पहले दिन भी खाली थे, हाथ आज भी खाली हैं.

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