28 जनवरी 2025

हिन्दुओं की आस्था पर फिर आघात

एक तरफ बहुसंख्यक देशवासी प्रयागराज में चल रहे महाकुम्भ की पावनता का एहसास कर रहे हैं वहीं कुछ राजनैतिक पक्ष इसको मलिन बनाने में लगे हैं. महाकुम्भ की पावनता को राजनैतिक रंग देने से राजनैतिक दल, व्यक्तित्व चूक नहीं रहे हैं. इसके आरम्भ होने के पहले से ही भाजपा-विरोधी, हिंदुत्व-विरोधी मानसिकता वालों द्वारा अनर्गल प्रलाप किया जा रहा है. इसी में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के एक बयान ने विवाद पैदा कर दिया है. उन्होंने कहा कि बीजेपी नेताओं के बीच गंगा स्नान की होड़ लगी हुई है, हालांकि इससे कोई गरीबी दूर होने वाली नहीं है. कांग्रेस पार्टी धर्म के नाम पर शोषण को कभी बर्दाश्त नहीं करने वाली. कांग्रेस अध्यक्ष को संभवतः जानकारी नहीं रही होगी कि कांग्रेस के पुराने नेता, जिसमें कि जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी भी शामिल हैं, कुम्भ में स्नान कर चुके हैं. देखा जाये तो यह बयान राजनैतिक विरोध के साथ-साथ धार्मिक आस्था के विरोध का भी है.  

 



विगत कुछ वर्षों से अनेक राजनैतिक दलों, व्यक्तियों का मुख्य उद्देश्य राजनैतिक विरोध के नाम पर हिंदुत्व पर, हिन्दुओं की आस्था पर चोट करना है. अवसर मिलते ही उनके द्वारा ऐसा कर लिया जाता है. कांग्रेस अध्यक्ष को यदि भाजपा नेताओं के स्नान करने से आपत्ति थी तो उनको किसी अन्य विषय के सन्दर्भ सहित भाजपा की, उनके नेताओं की आलोचना करनी चाहिए थी मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया. दरअसल गैर-भाजपाई दलों की दृष्टि में महाकुम्भ हिन्दुओं की धार्मिक आस्था का केन्द्र होने से ज्यादा भाजपा की राजनीति को सशक्त करने वाला मंच बनता जा रहा है. महाकुम्भ में जिस तरह से हिन्दू आस्था का सैलाब उमड़ रहा है उससे इन दलों को अपने राजनैतिक अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगता समझ आ रहा है. यही कारण है कि अनेक दलों द्वारा लगातार किसी न किसी रूप में महाकुम्भ की आलोचना का अवसर खोजा जा रहा है. यह अवसर खड़गे को भाजपा नेताओं के गंगा स्नान करने के रूप में हाथ लगा.

 

धर्म, गंगा स्नान, महाकुम्भ आदि किसी व्यक्ति की आस्था से जुड़े विषय हैं. पिछले कुछ समय से व्यक्ति की धार्मिक आस्था को, विशेष रूप से हिन्दुओं की धार्मिक आस्था को रोजगार, आजीविका, अमीरी-गरीबी आदि से जोड़ कर देखा जाने लगा है. इसका जीता-जागता उदाहरण श्रीराम जन्मभूमि मंदिर रहा है. उसे लेकर अनर्गल प्रलाप बराबर बना रहता था. मंदिर के स्थान पर कोई अस्पताल बनवाने की बात करता था, कोई विद्यालय बनाये जाने की वकालत करता था. मंदिर निर्माण को रोजगार से, आजीविका से जोड़कर भी लगातार सवाल उठाये गए. यहाँ सवाल उठाये जाने वालों की नीयत में किसी व्यक्ति का भला करना नहीं, किसी वर्ग-विशेष को लाभ पहुँचाना नहीं वरन हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ करना रहा है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि हिन्दुओं की आस्था पर, उनके धार्मिक स्थलों पर, उनके धार्मिक कृत्यों पर प्रश्न खड़े करते लोगों द्वारा कभी भी किसी अन्य धर्म, मजहब के लिए ऐसे प्रश्न नहीं किये गए. कभी इस पर बयान नहीं दिए गए कि किसी दरगाह, मजार पर चादर चढ़ाने से किसी गरीब के नंगे बदन को वस्त्र नहीं मिल जाता. कभी सवाल नहीं उठाया गया कि मोमबत्तियाँ जलाकर प्रार्थना करने से किसी गरीब के घर रौशनी हो जाती. ऐसा नहीं है कि देश में सिर्फ हिन्दुओं के धार्मिक क्रिया-कलाप ही संचालित होते हों, अन्य धर्मों के क्रिया-कलाप भी यहाँ पूरे उत्साह के साथ संचालित होते हैं, अन्य धर्मों के स्थल यहाँ अपनी पूरी आभा के साथ स्थापित हैं. ऐसी स्थिति होने के बाद भी हिन्दुओं की आस्था पर सवाल उठाना ऐसे लोगों की कुत्सित मानसिकता का परिचायक है.

 



ये बात राजनैतिक लोगों को समझ में नहीं आती है कि धर्म किसी भी व्यक्ति के आंतरिक विश्वास का विषय है. इसके माध्यम से व्यक्ति न केवल स्वयं को सुरक्षित समझता है बल्कि सकारात्मक रूप से प्रभावित भी होता है. वर्तमान में राजनैतिक दलों द्वारा संवैधानिक अनुच्छेदों का कथित रूप से फायदा उठाकर धर्म के द्वारा राजनीति को चमकाया जा रहा है. सार्वजानिक स्थलों पर धार्मिक कृत्यों को समर्थन देना, शैक्षणिक संस्थानों की आड़ में मजहबी शिक्षा प्रदान करना, अल्पसंख्यकों के नाम पर दबाव समूह के रूप में राजनीति करना इन्हीं अनुच्छेदों की आड़ लेकर किया जाने लगता है. समय-समय पर अलग राज्य की माँग, धार्मिक स्थलों का उपयोग राजनीतिक कार्यों के लिए करने जैसे कदम उठाये जाते रहते हैं.

 

जहाँ तक सवाल हिन्दुओं का है तो इस देश में सदैव से ही हिन्दुओं को साम्प्रदायिक घोषित करने का काम किया जाता रहा है. धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिकता के नाम पर बार-बार समाज में हिन्दुओं को बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है. हिन्दुओं को बदनाम करने की आड़ में भारत देश में भगवा आतंकवादहिन्दू आतंकवाद का प्रचार किया जाता रहा है. कुछ इसी तरह की हरकत खड़गे के बयान को कहा जायेगा. ये सोचने-समझने वाली बात है कि धार्मिक कृत्य मनोभावों को, संस्कारों को, पारिवारिक मूल्यों को सहेजने का, पल्लवित-पुष्पित करने का कार्य करते हैं. आस्था में, धार्मिक विश्वास में, कृत्य में कभी भी आर्थिक दृष्टिकोण को हावी नहीं होने दिया गया है. पता नहीं राजनैतिक रूप से खुद को सशक्त समझने वाले लोग धार्मिक, सामाजिक रूप से इतने कंगाल क्यों हो जाते हैं कि वे व्यक्तियों की आस्था, भावना से खेलने का काम करने लगते हैं?  


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