17 जनवरी 2024

खेलने-कूदने वाली यात्रा

हमारे शहर में किसी समय एक बहुत बड़े धनपति हुए थे. कहते हैं कि उनके यहाँ आगे की पीढ़ी में जब संपत्ति का, धन, जेवरात आदि का बँटवारा हुआ तो तौल कर हुआ था, कई दिन तक ये बँटवारा चला था. बहरहाल, सत्यता जो भी हो, हमने उस दौर को देखा नहीं था इसलिए इसे अंतिम सत्य नहीं कह सकते हैं. संपत्ति, जायदाद के बँटवारे में भले एक परिवार के भीतर कई हिस्से बन गए हों मगर अब शहर में एक बड़े धनपति की जगह पर कई-कई बड़े धनपति हो गए थे. उन्हीं धनपतियों की आगे बढ़ती पीढ़ी में से परिचय भी हुआ, उनकी प्रतिष्ठा, वैभव, सम्पदा आदि को देखने का अवसर मिला. देखने के बाद कहा जा सकता है कि एक बड़े धनपति वाकई में बहुत बड़े धनपति रहे होंगे. 




उन बड़े धनपति की आगे आने वाली पीढ़ी के बहुत से लोगों का बाजार पर कब्ज़ा जैसा हुआ करता था. मीटरों क्या किलोमीटरों के हिसाब से बाजार का भाग उनका हुआ करता था. दुकानों की संख्या के बजाय इधर से उधर तक के रूप में गिना जाता था. ये उस दौर की कहानी है जबकि बाजार वैश्वीकरण के कब्जे में नहीं आया था, आर्थिक उदारीकरण का शिकंजा इस पर नहीं था. बाजार के साथ-साथ व्यवहार भी सुचारू रूप से चला करता था. तब धनपति के बच्चों और दुकानदार के बच्चों में फर्क महसूस नहीं हुआ करता था. सभी एकसमान रूप से सड़क पर निर्भीक, निर्द्वंद्व खेल-कूद में व्यस्त रहा करते थे. वाहन आज की तरह नहीं थे, भीड़ आज के जैसी नहीं थी, वैमनष्यता आज के जैसी नहीं थी इसलिए क्या घर का आँगन और क्या बाजार की सड़क, सब एक जैसे हुआ करते थे या कहें कि नजर आते थे.


इसी एक जैसे दिखने वाले वातावरण में कुछ की स्थिति ऐसी हुआ करती थी जो धनपतियों की निगाह में सबसे आगे रहना चाहते थे. उनकी आर्थिक स्थिति ऐसा करने पर मजबूर करती थी तो कभी-कभी धनपति का अति-विशेष होने का लोभ भी ऐसा करवाता था. इसी आगे रहने की कारगुजारी में उनके द्वारा धनपतियों के नन्हे-नन्हे बच्चों को वे अपने प्यार-दुलार के दायरे में लाया करते. उन नन्हे-मुन्नों के लिए वे कभी बाबा हुआ करते, कभी चाचा हुआ करते, कभी भैया हुआ करते. यही स्व-घोषित बाबा, चाचा, भैया कभी घोड़ा बनकर नन्हे-मुन्नों को सड़क पर सैर कराते दिखते, कभी किसी बच्चे का मुक्का खाकर बेहोश होने का नाटक रचते. कभी दौड़ लगाने के खेल में जानबूझकर हारते तो कभी बच्चों के मनपसंद खाद्य पदार्थों की पूर्ति के लिए दौड़ लगाते दिखते. यद्यपि इन सबके पीछे उद्देश्य धनपति की निगाह में आने का रहता तथापि किसी भी तरह की दुर्भावना नहीं रहती.


अब देखने में आ रहा है कि आजकल भी कुछ ऐसा ही हो रहा है. एक धनपति परिवार मिल गया है कुछ लोगों को, उस धनपति परिवार में से एक युवराज भी बना डाला है इन्हीं लोगों ने. अब ऐसे लोग मिलकर उसके साथ खेल-कूद में व्यस्त हैं. कभी वह नन्हा युवराज किसी जोड़-घटाने की यात्रा पर निकलता है तो कभी न्याय माँगने चल पड़ता है. यह सब धनपति परिवार में निगाह में बने रहने वाले दुकानदार आयोजित करते हैं. मासूम युवराज किसी बाबा, किसी चाचा, किसी भैया की पीठ पर बैठकर उसे घोड़ा समझ दौड़ाता है; कभी किसी के पेट पर मुक्का मारकर उसका झूठमूठ गिरता देखकर खुश होता है. ये समझना कठिन होता जा रहा है कि यहाँ ऐसी तमाम यात्राओं में युवराज खेलने का आनंद उठा रहा है या फिर वे कथित दुकानदार जो किसी भी चुनाव में आने के पूर्व सक्रिय हो जाते हैं?





 

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