10 जनवरी 2024

पत्थर होती मानवीय संवेदना

एक स्टार्ट-अप कंपनी की सीईओ ने अपने चार वर्षीय बेटे की हत्या कर दी. हत्या का कारण तलाक प्रक्रिया के दौरान अदालत द्वारा उसके पति को बेटे से मिलने की अनुमति प्रदान किया जाना था. अदालत के इस निर्णय से वह महिला चिढ़ी हुई थी. ये घटना इसी समाज की है जहाँ स्वीकारा जाता है कि पूत तो कपूत हो सकता है किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती. तलाक की प्रक्रिया जिस पति से चल रही, उससे चिढ़ होना सहज है मगर उसके चलते अपने ही बेटे की हत्या कर देना संवेदनहीनता के साथ-साथ मानसिक असंतुलन का परिचायक है. मामूली सी बात पर अपने ही परिजन की हत्या जैसा जघन्य अपराध समाज के लिए नया नहीं है. 




अभी कुछ दिनों पूर्व खबर आई कि एक महिला ने अपने पति की हत्या महज इस कारण से कर दी क्योंकि उसके पति ने महिला को सोशल मीडिया पर रील बनाने से रोका था. यद्यपि किसी भी रूप में किसी इन्सान की हत्या को स्वीकार्य नहीं माना जाता है तथापि स्वरक्षा हेतु किसी अपराधी की, आतातायी की जान ले भी ली जाये तो उसे कानूनी रूप में, सामाजिक रूप में क्षम्य माना गया है. अब जिस तरह की घटनाओं के चलते हत्या जैसे मामले सामने आ रहे हैं उनमें तो विवाद भी इस तरह का नहीं होता है कि आवेश में, क्रोध में, बदले की भावना में किसी व्यक्ति की जान ले ली गई हो. लिव इन रिलेशन में रहने के बाद मन ऊब जाने के कारण हत्या कर देना रहा हो, प्रेम विवाह के बाद मनमुटाव होने पर सूटकेस में टुकड़े-टुकड़े में मिलना, प्रेमी के साथ मिलकर पति और बच्चों की हत्या, व्यावसायिक लाभ के लालच में पत्नी का सौदा करना, नशा न करने देने पर माता-पिता की हत्या, पिता द्वारा बेटी के साथ बलात्कार करना आदि खबरें प्रतिदिन ही हमारी नज़रों के सामने से गुजरती हैं. बड़ी संख्या में होती इन घटनाओं को किसी बाहरी तत्व द्वारा अंजाम नहीं दिया जा रहा है वरन परिवार के निकट सम्बन्धियों द्वारा ऐसा किया जा रहा है.


इस तरह की घटनाएँ स्पष्ट रूप से मानवीय संवेदनाओं के मृत होने की ओर इशारा करती हैं. तकनीकी, बौद्धिक रूप से समृद्ध होते जा रहे समाज की यह बहुत बड़ी विडम्बना बनती जा रही है कि यहाँ मानवीयता के प्रति नकारात्मकता देखने को मिल रही है. संवेदनाओं के कम होने के कारण, मानवता के प्रति लोगों की सकारात्मकता कम होने से आपसी प्रेम-स्नेह, समन्वय आदि में भी गिरावट आई है. मानवीय संवेदना के चलते ही एक मनुष्य दूसरे से संपर्क रखता है, उसके साथ रिश्तों का निर्वहन करता है. ऐसा होने के कारण ही मनुष्य अपनी व्यक्तिगत सीमा-रेखा से बाहर आकर अपने परिवार के साथ-साथ अपने आस-पड़ोस, अपने क्षेत्र, समाज आदि के प्रति चिंता का भाव रखता है. संवेदना ही मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने में सहायक होती है. संवेदनाओं का लगातार क्षरण होते जाने से मनुष्य क्रूरतम से क्रूरतम कदम उठाने से नहीं डर रहा है.


मानवीय संवेदनों के समाप्त होने के पीछे के कारण मानव ने स्वयं उत्पन्न किये हैं. तीव्रतम गति से किसी भी रूप में सफलता को प्राप्त कर लेने की तृष्णा ने जैसे सोचने-समझने की शक्ति को छीन लिया है. शिक्षित होने के बाद भी समाज से नैतिक शिक्षा का लोप हो चुका है. सोशल मीडिया की स्वतंत्रता ने रिश्तों की गरिमा को तार-तार कर दिया है. इस तरह की प्रवृत्ति ने जहाँ एक तरफ नैतिकता को,मानवीयता को समाप्त किया है वहीं दूसरी तरफ हमारे संस्कारों की, संस्कृति की पाठशाला संयुक्त परिवारों का भी क्षरण किया है. संयुक्त परिवारों के विघटन के बाद जन्मे एकाकी परिवारों ने बच्चों की सामूहिकता समाप्त कर दी है. अब उनका बचपन विशुद्ध रूप से मशीनों के साथ बीतता है. ऐसे में उसके भीतर संस्कारों का, संवेदनाओं का होना एक कल्पना ही है.


संवेदनाओं की लगातार होती कमी के साथ मानव में सहनशक्ति की भी कमी होती जा रही है. इधर देखने में आ रहा है कि विगत कुछ समय से इस तरह की जघन्य वारदातों, अपराधों के पीछे बहुत छोटी सी बात, मामूली सी घटना ही कारण हुआ करती है. पारिवारिक सदस्यों को किसी काम को करने से रोकना, उनको अनुशासन में रहना सिखाना, अनुपयोगी कार्यों को न करने की सलाह देना आदि ऐसे कारण बनते हैं. देखा जाये तो एक व्यक्ति के जीवन में बचपन से लेकर अंतिम अवस्था तक कदम-कदम पर घर-परिवार में, विद्यालय में, कार्यक्षेत्र में, समाज में एक तरह का प्रतिस्पर्द्धा का माहौल बना रहता है. उसे न केवल समाज में, अपने कार्यक्षेत्र में बल्कि परिवार तक में आपसी प्रतिस्पर्द्धा का सामना करना पड़ता है. ऐसा करने के लिए उसे प्रेरित भी किया जाता है, कभी-कभी उसे हतोत्साहित करके भी आपसी प्रतिस्पर्द्धा में शामिल कर दिया जाता है. प्रतिस्पर्द्धा के इस तरह के बनावटी माहौल में ऐसा इन्सान अपने-पराये का, अच्छे-बुरे का, संयम-आवेश का अंतर भुला बैठता है, सहनशीलता को विस्मृत कर देता है. उसके लिए किसी भी रूप में सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत विजय ही मायने रखती है.


सहानुभूति, संवेदना, दुःख, मानवीयता आदि रहित इन्सान जब समाज में अपना अस्तित्व बनाता जा रहा है तो आये दिन इस प्रकार की शर्मसार करने वाली घटनाएँ घटित होना स्वाभाविक है. आज नैतिक मूल्यों का ह्रास और आडम्बर के द्वारा खुद को उच्च स्तर पर दिखाना जीवन बन गया है. पति-पत्नी का साथ-साथ रहना मुश्किल हो गया है, माता-पिता और संतानों में कटुतापूर्ण रिश्ते बने हुए हैं, रक्त-सम्बन्धी ही एक-दूसरे के खून के प्यासे हों तो उस वातावरण में मानवीय मूल्यों का जीवंत बने रहना दुष्कर ही है. 





 

1 टिप्पणी:

  1. इसमें रिश्तों की हत्या ही नहीं बल्कि नारी के अहम रिश्तों माँ, पत्नी और बहन आदि को भी कलंकित करने का अपराध भी शामिल है। कहाँ से ये अबला हैं? बतलाइएगा!

    जवाब देंहटाएं