02 जनवरी 2024

हलाल प्रमाण पत्र : सरकारी कार्य में मजहबी घुसपैठ

कुछ दिनों से हलाल और हलाल प्रमाण पत्र ने पर्याप्त सुर्खियाँ बटोरी हैं. चर्चा में आने का कारण उत्‍तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा हलाल प्रमाण पत्र पर रोक लगा देना है. देश में न केवल माँसाहार पर बल्कि सौन्दर्य प्रसाधनों सहित अनेक सामानों के लिए हलाल प्रमाण पत्र दिया जाने लगा है. देश में वर्तमान में ऐसी कोई सरकारी संस्था मान्यता में नहीं है जिसके द्वारा इस तरह का प्रमाण पत्र जारी किया जाये. उत्तर प्रदेश ने तत्काल प्रभाव से अवैध तरीके से हलाल प्रमाण पत्र देने के कारोबार पर प्रतिबन्ध लगा दिया है. ऐसा होते ही प्रदेश में हलाल प्रमाणित उत्पाद का निर्माण, उसकी बिक्री और भंडारण को अवैध घोषित कर दिया गया है. यदि इस तरह की कार्यविधि में कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था संलिप्त पाए जाते हैं तो उनके विरुद्ध औषधि और प्रसाधन सामग्री कानून के अंतर्गत सख्त कार्रवाई की जाएगी. ऐसा आरोप है कुछ संस्थाएँ हलाल प्रमाण पत्र के नाम पर पर अवैध कारोबार में संलिप्त हैं. इस प्रमाण पत्र के नाम पर धन को जुटाया जा रहा है, जिसके माध्यम से आतंकवादी संगठनों और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को मदद की जा रही है.

 



हलाल को माँसाहार और शाकाहार खाद्य पदार्थों के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है अर्थात माँसाहार के अलावा अनेक तरह के शत-प्रतिशत शाकाहारी खाद्य पदार्थों को भी हलाल की श्रेणी में शामिल माना जा रहा है. हलाल प्रमाण पत्र जारी करने के अवैध कारोबार के बाद ऐसे तमाम उत्पादों को गैर-इस्लामिक माना जाने लगा, जिनके पास हलाल प्रमाण पत्र नहीं है. इस तरह की सामग्री को हराम मानते हुए इसे गैर-इस्लामिक भी माना गया और इसका बहिष्कार भी किया जाने लगा. हलाल प्रमाण पत्र देने सम्बन्धी प्रक्रिया को पहली बार 1974 में वध किए गए माँस के लिए शुरू किया गया था. इससे पहले हलाल प्रमाणन का कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता है. यहाँ हलाल माँस से तात्पर्य उस माँस से है, जिसे इस्लामी प्रक्रिया की मदद से हासिल किया जाता है. वर्ष 1993 में हलाल प्रमाणीकरण सिर्फ माँस तक सीमित नहीं रहा, बल्कि इसे अन्य उत्पादों पर भी लागू किया गया.

 

हलाल प्रमाण पत्र देने के लिए पूरे देश में अब तक कोई भी संस्था पंजीकृत नहीं है. माँसाहार पदार्थों के अलावा  हलाल प्रमाण पत्र का प्रयोग सौंदर्य प्रसाधन, चीनी, पिपरमिंट तेल, खाद्य तेलों, रवा और बेकरी उत्पादों पर भी होने लगा. इसके पीछे कारण बताया गया कि देश से बहुत सारे उत्पादों का निर्यात इस्लामिक देशों में किया जाता है अथवा ऐसे देशों में भी किया जाता है जहाँ मुस्लिम आबादी इन उत्पादों का उपयोग करती है. इन्हीं देशों और नागरिकों में हलाल की बाध्यता होने के कारण निर्यात किये जाने वाले उत्पादों के लिए हलाल प्रमाण पत्र जारी किये गए. देश में इस तरह के प्रमाण पत्र जारी करने वाली कोई आधिकारिक अथवा सरकारी संस्‍था न होने के कारण यह कार्य अनेक निजी कंपनियों और एजेंसियों द्वारा किया जाने लगा. इनके माध्यम से व्‍यक्तिगत तौर पर कंपनियों को हलाल प्रमाण पत्र उपलब्ध करवाया जाने लगा. इस तरह की एक कंपनी हलाल इंडिया के प्रमाण पत्र को कतर, यूएई और मलेशिया जैसे इस्‍लामिक देशों में मान्‍यता मिली हुई है. इस कंपनी द्वारा अपनी वेबसाइट पर दावा किया जाता है कि वह किसी भी उत्पाद को प्रयोगशाला में परीक्षण करवाने और अनेक तरह के ऑडिट करवाने के बाद ही हलाल प्रमाण पत्र देती है. देश में वर्तमान में चेन्नई की हलाल इंडिया, दिल्ली की जमीयत उलमा-ए-हिंद हलाल ट्रस्ट और मुम्बई की हलाल काउंसिल ऑफ इंडिया भी हलाल सर्टिफिकेट बाँट रही हैं.

 

हलाल प्रमाणन का विरोध होने पर तमाम सारी कंपनियों, मुस्लिमों और हलाल समर्थकों ने यह तर्क रखा कि गैर माँसाहारी खाद्य पदार्थ, सौंदर्य प्रसाधन और अन्य शाकाहारी उत्पादों के लिए भी हलाल प्रमाणपत्र आवश्यक है. इस प्रमाण पत्र का सम्बन्ध केवल शुद्धता और प्रामाणिकता से है. इसके द्वारा उत्पादों के लिए एक प्रमाणीकरण प्रक्रिया को स्वीकारा गया है, इसका अर्थ केवल यह है कि उत्पाद अच्छा है. यदि हलाल प्रमाण पत्र समर्थकों के दावे को मान भी लिया जाये और इन उत्पादों पर हलाल प्रमाणपत्र स्वीकार कर लिया जाये तो क्या यह मान लिया जाये कि आईएसआई और एफएसएसएआई जैसे उपभोक्ता उत्पादों पर वर्तमान सरकारी प्रमाण पत्र पर्याप्त नहीं हैं? क्या मान लिया जाये कि हलाल प्रमाण पत्र प्रदान करने वाले किसी तरह की कोई पारदर्शी, वैज्ञानिक और किसी परिभाषित विधि को अपनाते हैं जो उत्पादों की शुद्धता अथवा उसकी अच्छाई का निर्धारण करती है? हलाल प्रमाणन विशुद्ध रूप से मजहबी इस्लामी संगठनों द्वारा जारी किया जाता है, ऐसे में उत्पादों की शुद्धता अथवा उनके प्रमाणीकरण से अधिक यह विचार गैर-इस्लामिक समुदायों के प्रति भेदभावपूर्ण है. यह प्रक्रिया एक तरह से गैर-इस्लामिक समुदायों पर भी इस्लामी भावनाओं को थोपने का कार्य करती है. यदि कल को गैर-इस्लामिक समुदायों द्वारा भी इस तरह की प्रमाणीकरण प्रक्रिया को अपनाया जाने लगे तो सरकारी मान्यता प्राप्त, पंजीकृत संस्थाओं का औचित्य ही क्या रह जायेगा?

 

देखा जाये तो सरकारी पंजीकृत संस्थाओं के सामानांतर इस तरह की व्यवस्था बनाना एक तरह से सरकारी तंत्र को चुनौती देना है. भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सरकार के सामानांतर इस तरह की अर्थव्यवस्था को अपनाए जाने का मंतव्य क्या हो सकता है? इस तरह की व्यवस्था को किसी भी रूप में न्यायसंगत नहीं ठहराया जा सकता है, भले ही ऐसा उन देशों के सन्दर्भ में ही क्यों न आवश्यक महसूस हो जहाँ निर्यात किये जाने वाले उत्पादों का उपयोग मुस्लिम आबादी द्वारा किया जा रहा हो. मुसलमानों के लिए अपने उत्पादों का विक्रय करने के लिए हलाल प्रमाणपत्र की माँग करना न केवल अनुचित है बल्कि गैर-कानूनी भी है. यह जिम्मेदारी सरकार की है कि जब देश में सरकारी प्रमाणन पर्याप्त है तो एक विशेष समुदाय द्वारा समानांतर प्रमाणन तंत्र की स्थापना कैसे हो रही है?

 




 

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